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________________ हिन्दी-जैन-साहित्यमें अलंकार-योजना कायाको चित्रशालमें कर्मका पल्ग विछाया है। उसपर मायाकी सेन सजाकर मिथ्या कल्पनाका चादर डाल गया है। इसपर अचेतनाकी नीदमे चेतन सोता है। मोहको मरोड नेत्रोका बन्द करना है, कर्मके उदयका बल ही श्वासका घोर शब्द है और विषय-सुखकी दौर ही स्वप्न है। कविने यहाँ उपमेयमे उपमानका आरोप बड़ी कुशलतासे किया है। कवि कहता हैकायाकी चित्रसारीमें करम परजंक भारी, मायाकी संवारी सेज चादर कल्पना । शैन करे चेतन अचेतन नीद लिए मोहकी मरोर पहै लोचनको उपना। उदै बल-जोर यहै श्वासको शवद घोर। विष सुखकारी जाकी दौर यही सपना । ऐसी मूढ दशाम मगन रहे तिहु काल धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना । वस्तुतः कवि वनारसीदासने अप्रस्तुतमें प्रस्तुतका केवल स्पसाहव्य ही नहीं दिखलाया, किन्तु प्रस्तुतकै भावको तीव्र बनाया है। निरन रूपकोंमें सादृश्य, साधर्म्य, तथा प्रभाव इन तीनोंका प्यान रखा है, पर सांग रूपकमे साहश्य और साधर्म्यका पूरा निर्वाह किया है। कविने कई स्थलोंपर आत्मा और परमात्माकै बीचके व्यवधानको दूरकर आत्माको ही अमेदपक परमात्मा बतलाया है। कवि मैया भगवतीदासके सिवा कवि वृन्दावनने भी अपनी कविताम रूपकोकी यथास्थान योजना की है। कवि वृन्दावन कहता है आदि पुरान सुनो भवकानन । मिथ्यातम गयंद गंजनको, यह पुरान साँचो पंचानन । सुरगमुक्तिको मग दरसावत, भविक जीवको भवभय भानन ॥
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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