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________________ ४० हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन काणण- सिरि सोहइ अरुण - नव- पल्लव परिणद | नं रतंय-पावरिय महु-पिययम संवद्ध ॥ सहयारिहि मंजरि सहहि भ्रमर-समूह-सणाह | जालार व मयणानलह पसरिय-धूम-पवाह || अर्थात्-कोयलोके शब्दसे मुखरित वसन्त जगमे प्रविष्ट हुआ, मानो कामदेव महानृपके विजय- अह्कारको प्रकट करनेवाला योद्धा ही हो । सुन्दर किरणोंवाले सूर्यको उत्तर दिशामे आते देखकर मलय- समीर दक्षिण दिशा निश्वासकी तरह बहने लगा | अरुण नव कोपोसे परिणढ कानन श्री ऐसी गोमित होती है, मानो वह रक्ताशु लपेटे हुए वासनारूपी प्रियतमसे आलिगित हो । भ्रमर-समूहसे युक्त आम्रमञ्जरी ऐसी जान पड़ती है, मानो मदनानलकी ज्वालासे धुंआ उठ रहा हो । प्रवन्ध-चिन्तामणिमें छोटी-छोटी कई कथाएँ है, इन कथाओं में आपस मे कोई सम्बन्ध नही है; अतः यह सफल प्रवन्ध-काव्य नहीं कहा जा सकता । कुमारपाल प्रतिबोध कुमारपालको प्रबुद्ध करनेके लिए ५७ लघुकथाएँ दी गयी हैं । कविने सप्त व्यसन जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, शिकार खेलना, परस्त्रीसेवन करना, चोरी करना और वेव्या एवं काम वासना के त्याग करनेका उपदेश देते हुए अनेक छोटे-छोटे आख्यानोंको उदाहरणकै रूपमें प्रस्तुत किया है । यद्यपि प्रासङ्गिक कथाओंकी आधिकारिक कथा के साथ अन्विति है, पर प्रबन्धमें शैथिल्य है । क्रमवद्धताका भी अभाव है । कतिपय वर्णन कल्पनाकी उड़ान और भावनाकी सघनताकी दृष्टिसे सुन्दर हुए हैं। जगत्की तुच्छता और निस्सारता दिखलाते हुए मौतिक पदाथाँकी क्षणभंगुरताका मर्मस्पर्शीं निरूपण किया है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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