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________________ १०६ हिन्दी-जैन साहित्य परिशीलन तम विश्वकै पदार्थमें आसक्ति रहेगी, सयमको भावना उत्पन्न नहीं हो सकती । इसी कारण कलाकार नगन्के वास्तविक क्षणम्गुर ल्पको व्यक्त करता हुआ संसारकी लार्थ-परता, उसके रागान्मक घिनौने सम्बन्ध, एवं अन्तनंगकी विभिन्न अवास्तविकताओंका प्रत्यक्षीकरण करता है, क्षणभंगुर गरीरसे अमर आत्माकी ओर अग्रन्दर होना है तथा मूर्त जीवन्म अमूर्नका एवं स्यूल स्पर्म मध्म त्पा सामीप्य लाम बनेको उत्सुक है। अनित्यपञ्चीसिकाम बाह्यचित्रणम इतनी प्रगत्मता नहीं दिखलायी गयी है, जितनी अन्तगतके चित्रण । विश्व अतिरजित चित्र कविको मोहित नहीं कर सके है, अतः वह संसारकी अस्थिरता, अनित्यता एवं निन्सारताका विवेचन करता है। कविका यह विशेषता है कि उसने निराशाकी भावना कहाँ भी व्यक्त नहीं होने दी है। जीवन में आशा, सर्ति, प्रेम, सन्तोष, विवेक आदि गुणोको उतारनेके लिए बोर दिया है। ___ कवि कहता है कि इस दुर्लभ मानव शरीरको प्रातकर यदि हमने अपने अन्तस्का आलोडन नहीं किया, अपने रहन-सहन, खान-पानकी शुद्धिपर जोर नहीं दिया, क्रोध-मान-साग-लोभ जैसे विकारॉको अपने हृदयने निकाल बाहर नहीं किया एवं इन्द्रियाँक विषयाम आसक्त हो नाना प्रकारके कुकृत्य करना नहीं छोड़ा तो फिर इस शरीरका प्राप्त करना निरर्थक है । जीवनम अपरिमित आनन्द है, अनन्त दुख है, किन्तु इसकी प्राप्ति सच्चे आत्म-बोधके बिना नहीं हो सकती है। हम्गरे नितने भी रागात्मक सम्बन्ध हैं, वे सब स्वार्थपर आश्रित हैं। हम इन रागात्मक सम्बन्धोंसे ऊपर उठनेपर ही वास्तविक नुस्ख पा सकते हैं। मानव जीवन गस्तविक आत्मदर्शन करने के लिए मिला है, अतएव इसका सदुपयोग करना प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है। इस मौतिक जगन्में दुःखका मूल कारण अनात्मभाव ही है | कवि कहता है नर देह पाये कहा, पंडित बहाये कहा, तीरथके न्हाये कहा तर तो न बेह है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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