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________________ प्रकीर्णक काव्य १८५ हो गया है, वह अपनी सीमाका उल्लघन नहीं करता है । जिस प्रकार वर्षा ऋनुमे सरिताओंमे वाढ आ जाती है और उसमे तृण, काष्ठ आदि बलुऍ वह जाती है, किन्तु चित्रावेल इस बादमे वह जानेपर भी सड़तीगलती नहीं है और न वह गली-गली मारी-मारी फिरती ही है, इसी प्रकार पॉचों इन्द्रियोके प्रपचमे पडकर भी आत्मनानी विलाससे पृयक् रहता है, इन्द्रियों उसे आसक्त नहीं कर पाती है । लोभ, मोह आदि विकारोसे यह अपनी रक्षा कर लेता है- . ऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढ़े, बादै नाहिं मरजाद सागरके फैल की। नीरके प्रवाह तृण काठवृन्द बहे नात, चित्राधेल आइ चढे नाही कह गैल की । 'वनारसीदास' ऐसे पंचनके परपंच, रंचक न संक आवै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न अनीत न क्यों प्रीति पर गुण सेती, ऐसी रीति विपरीति अध्यातम शैल की। इस रचनामे कुल ५२ पद्म है, सभी आत्मबोध जागृत करनेमे सहायक है। भैया भगवतीदासको जीवनकी नम्बरता और अपूर्णताकी गम्भीर अनुभूति है। इसी कारण विश्व और विश्वके द्वन्द्वोंका चिन्तन, मनन भनित्यपचीसिका है और विश्लेपण इनकी कवितामे विद्यमान है। " काल्पनिक और वास्तविक जीवनकी गहन व्याख्या करते हुए आत्मतत्त्वका विवेचन किया है। कविने इस प्रस्तुत रचनामें अपने आभ्यन्तरिक सत्यको देखने और दिखलानेका प्रयास किया है। कविका अनुभूतिका स्रोत आत्मदर्शनसे प्रवाहित है। वह जीवनकी समस्त समस्याओंका एकमात्र समाधान साधना या सयमको बतलाता है। जब
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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