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________________ प्रकीर्णक काय १८७ लम्केि फमाये कार, भरटके भपाये कहा, मनके धराये कहा छीनता न है रे॥ पेणके हुँगाये गए, भपके बनाये कहा, जोयनके आगे कहा, बराह न बद्ध है। प्रमको पिलान कहा, दुर्जनमें पाम फटा, भातन प्रभाग यिन पीठे परितः । म रचनाग शुलन पत्र करिने एनम गविपके उज्ज्वल प्रकायाको अपित परनन नाम अतीत और वर्तमानका समन्वय भी करनेका आगाम पिया।। कवि पानतरायने १२१ पोगं यह गनभावन रचना लिखी है। सबिन भात्मगौन्दर्नया अनुभव कर उने गगारके मामने इन टगते रखा , जिसमे वान्तविपः आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान - सहजम हो जाता है । यह कृति मनव-हृदयको स्वार्थ गम्बन्धासरी सकीर्णतामे ऊपर उटापर लोक-कल्याणकी भावभूमिपर ले जती, जिनमे मनोविमाका परिकार हो जाता है। अनेक विकारोका विपण करनेके गग्ण विकी बहुदर्शिता प्रकट होती है। मानव-हृदयके रहत्या में प्रवेश परनेसी अनुल भगता विद्यमान है। आरम्भमे इष्टदेवको नमसार करने उपरान्त भक्ति और लुतिकी आवश्यकता,मिथ्यात्व और मम्यत्तयकी महिमा, रहबाराका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःस, पुण्य-पापकी महत्ता, धर्मका महत्व, जानी-अगानीका चिन्तन, आत्मानुभूतिकी विशेषता, शुद्ध आत्मत्वस्प, नवतत्त्वस्वत्प, आदिका मरम विवेचन विद्यमान है। कविने भवसागरसे पार उतरनेका कितना मुन्दर उपाय बतलाया है मोचत जात सर्व दिनरात, क्छ न घसात क्हा करिये जी। सोच नियार निजातम धारहु, राग विरोध सबै हरिये जी॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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