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________________ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन ता हुआ प्रभावोत्पादक शैलीमें मर्मोद्वार व्यक्त करता हुआ पाखण्डियोंको फटकारता है कि रे मूर्ख प्राणी ! तू क्यों दीन पशुओंका वध करता है । हृदयमें ज्ञान ज्योतिके जागृत हुए बिना तुम यज्ञ करनेके अधिकारी नही । सच्चा यश वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मज्ञानके दीपकको प्रज्वलित कर सकेगा । जो व्यक्ति नाना तीथों और अनेक सरिताओंमें अवधपूर्वक स्नान करता है, उसका वह लान व्यर्थ है । निर्मल आत्म1 जल में स्नान किये बिना तीर्थस्नान कोरा आडम्बर है। सच्चा आत्मवोध ही शान्ति दे सकता है, इसीसे आत्मदर्शन सम्भव है । ज्ञानी व्यक्ति विपत्ति और सकटके समय अचल, अडिग और स्थिर रहता है। मंसारका कोई भी प्रलोभन उसे अपने कर्त्तव्य-मार्गसे है। सुख-दुःख तो संसारमे पुण्य-पापके उदयसे है । विचारों और भावनाओं में सन्तुलन उत्पन्न करना तथा अन्तम्म ज्ञानदीपको प्रकाशित कर अनात्म-भावनाओके तिमिरको विच्छिन्न करना प्रत्येक विचारवान् व्यक्तिका कर्त्तव्य है । कवि वनारसीदास इसी भावनाको व्यक्त करते हुए कहते हैं च्युत नहीं कर सकता अहर्निश आते रहते ** कौन काल सुगध करत वध दीन पशु, नागी न अगम ज्योति कैसो यज्ञ करिहै । कौन काज सरिता समुद्र सर लल डोहै, आतम अमल ढोह्यो अजहूँ न ढरिहै ॥ काहे परिणाम संक्लेग रूप करै जीव, पुण्य पाप भेद किए कहुँ न उधरिहै । 'वनारसीदास' निज उक्त अमृत रस, सोई ज्ञान सुनै तू अनन्त भव तरिह || आत्मज्ञानीकी अवस्था, कार्य-पद्धति एवं जीवनकी गतिविधिका निरूपण करते हुए कवि कहता है कि जिस व्यक्तिको सच्चा आत्मबोध प्राप्त
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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