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________________ आध्यात्मिक रूपक कान्य मान-माया-लोभादि मनोविकारोके परिमार्जनका प्रयास किया है एव कमी कनकमेखलामडित विविधवर्णमय घनपटलोकी क्षणमगुरताका दिग्दर्शन कराते हुए संसार-आसक्त मानवको वैराग्यकी ओर ले जानेका सुन्दर प्रयत्ल किया है। आध्यात्मिक स्पक काव्योका उद्देश्य ज्ञान और क्रिया-द्वारा दुःखकी निवृत्ति दिखलाकर लोककल्याणकी प्रतिष्ठा करना है। लोकमंगलागासे जैन कवियोका हृदय परिपूर्ण और प्रफुल्ल था | अतः सच्चिदानन्द स्वरुप आत्माका आभास करा देना ही इन्हे अभीष्ट है और इसीमें इन्होने सञ्चा लोककल्याण भी समझा है। मनोविकारोके आधीन रहनेसे मानव-जीवनमें 'शिव'की उपलब्धिमे बाधाएँ आती है, जीवनव्यापी आदरों और धमाकी अनुभूति भी नहीं हो पाती है तथा सात्विक, राजस और तामस प्रवृत्तियोंमेसे राजस और तामस प्रवृत्तियोका परिष्कार भी नहीं हो पाता है; जिससे जीवनकी सात्त्विक, उदात्त भावनाएँ आच्छादित ही पड़ी रहती है । भौतिकवादकी निस्सारता और आध्यात्मिकवादकी श्रेयताका मार्मिक विवेचन-"मात्मनः प्रतिकूलानि परेपां न समाचरेत्" अहिंसा वाक्यको मूलमें रखकर किया है। आत्माकी प्रेयता तथा इसका शोधन भी अहिंसाकी भावनापर ही अवलम्बित है। इसी कारण रूपक काव्यनिर्माताओने आत्मतत्वकी उपलब्धिके लिए निवृत्ति मार्गको विशेषता या महत्त्व प्रदान किया है । यद्यपि प्रवृत्ति-मार्ग आर्पक है, पर पूर्ण दुःखकी निवृत्ति नहीं करा सकता है तथा इस मार्गमें पास होनेवाली भोगसामग्रियाँ क्षणभगुर होनेसे अन्तमे वेदनाप्रद होती है । अतः जैन कलाकारोने जैन दर्शनके सूक्ष्म तत्त्वोके विश्लेपणकै साथ शुद्धात्माकी उपलब्धिका विधान बताया है। इस विधानमै आत्माकी विभिन्न अवस्थाओ और उसके विभिन्न परिणामोका बड़े ही स्पष्ट और मार्मिक ढगसे विवेचन हुआ है। आध्यात्मिकताकै विकृत रूपके प्रति विद्रोहकर आत्माकी विशाल अतुलित शक्तिका उद्घाटन भव्य और आकर्षक रूपमें विद्यमान है। इस विवेचनमें
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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