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________________ चतुर्थाध्याय आध्यात्मिक रूपक काव्य जैन कवि अपनी रचनाओंमें आत्मभाव सनाईके साथ अभिव्यक्त किया है। इनके काव्य के अन्तर्वृत्ति-मृतक विदेशणने जीवनका विभिन्न वृत्तियोंका परिज्ञान महदमें किया जा सकता है । इनके काव्यमें शुद्धात्मा और सारी अपर्क प्रसंगको उपस्थितकर आध्यात्मिक दोषके साथ fferer at न् वनाये रखनेका प्रयास निहित है | चैन कवियोंने आध्यात्मिक अनुभूतिकी मचाईको अन्योक्ति और समामोतिमें चड़ी मार्मिकता साथ व्यक्त किया है। इन कवियोंकी आध्यात्मिक मानाने हृदयको पर लाकर भावका सार समन्वय उपस्थित क्रिया हैं। जीवन मुन्न-दु:ख, हर्ष-विपाट, आकर्षण - विकर्षणको दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में मानव भावनाओंका गहन विलेपण किया गया है। प्रस्तुत द्वारा अन्तुका विधान साधारण छोटी-छोटी आख्यायिकाओंमें किया गया है । कत्रियोंने इतिवृत्त भी कहीं कहीं आध्यात्मिक हीं अग्नाये हैं; परन्तु इनमें विचारों, भावनाओं और प्रवृत्तियाँके मंस्टिट चित्रका मुद्रा पूर्ण संग विद्यमान है। जैन आध्यात्मिक रूपक कायोंमें विवाह कल्पना, अगाध दाईनिकता या सूक्ष्म भावनाओंका विद्वेषण है। इन काव्यां तु व्याख्यानों मैं क्षमा, क्रोध, उनकाह एवं महानुभूति आदि नैसर्गिक त्रोंकी योजना कर जीवन के प्रकाश और अन्धकार rai aorat मौलिक रूपये की है। इन कन्यकारोंकी कव्यनानं कमी स्वर्णकमलने कलित-सुधा सरोवर के कूलर कल्यानि सन्दित पाटों विकरण किया है, कभी अल्कापुरीके रत्ननटिन प्रासादको सारहीनताका संस करते हुए क्रोध
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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