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________________ दौलत-जैनपनसंग्रह। बजकोप बंधे चिर, भवि अलि मुंचन पाया है दौल जाम निजातम अनुभव, उर जग अन्तर छाया है। जिन ॥१॥ ४ पारस जिन चरन निरस, हरख यो लहायो, चितवत चन्ता चकोर ज्यों प्रमोद पायो । टेक।। ध्यों मन घनघोर शोर, मोरहर्पको न भोर, रंक निधिसपाज राज पाय मुहित यायो । पारस० ॥ ज्यों जन चिराधिन होय, भोजन लखि सुखित होय, भेज गदहरन पाय, सरुंज सुहरबायो । पा. रस० ॥२॥ वासर मयो धन्य आज, दुरित दूर परे मान, शांतदशा देख महा, मोहतम पलायो । पारस० ॥३॥ जाके गुन जानन जिम, भानन भवकानन इम, जान दोन शरन आय, शिवसुख ललचायो । पारम० ॥४॥ वंदों अदभुत चन्द्र वीरें जिन, भवि-कोरचिनहारी॥ बंदो० ॥ टेक | सिद्धारयनृपालनम-मंडन, खंडन भ्रमतप भारी । परमानंद-जलधिविस्ताग्न, पाप नाप छयकारी ॥ बंदो० ॥१॥ उदिन निरंतर त्रिभुवन १ छोर । २ बहुत दिनोंका भूम्या १३ वा ४ रोगी । ५ महापौर स्थानी।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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