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________________ ___४ ' दौलत-जैनपदसंग्रह । है ॥ देखो जी० ॥१॥ कंचन वरन चलै मन रंच न, सु रंगिर ज्यों थिर थाया है। नास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है। देखो जी० ॥२॥ शुषउपयोग हुताशनमें जिन, वसुविधि समिधं जलाया है । श्यामलि अ. लिकालि शिर सोहै, मानों धुंआ उठाया है ।। देखो जी. ॥३॥ जीवन मरन अलाम लाभ जिन तन मनिको सम भाया है।सुर नरनाग नहिं पद जाकै, दौल तास जस गाया है। देखो जी० ॥४॥ जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतमधान नसाया है। जिन० ॥ टेक ॥ वचन-किरन-प्रसरनत भविजन, मनमरोज सरसाया है। भवदुग्वकारन सुखविसतारन, कुपय सुपथ दरसाया है। जिन ॥१॥ विनप्लाई, कज जलसरसाई निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रवल कषाय पलाये, जिन धनबोध चुराया है ।। जिन०॥२॥ लखियत्त उँडु न कुभाव कई अब, मोह लूक लगाया है। हंस कोकेको शोक नइयो निज,- परनविचकवी पाया है। जिन ॥३॥ कर्मबंध सुमेरु पर्वत । २सिंह । ३ होम करनेकी लकडिया । ४ काई द्वितीय पक्ष-अज्ञानरूपी काई । ५ स्मर अर्थात्-फामदेव । ६ चोर तारे । ८ आत्मा । ९ चकवा । १० कर्मबंधरूपी कमलोंके कोष बंधे दुए के, उनसे।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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