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________________ दौलत-जैनपदसंग्रह। जगतारनको तुम विरद एव ॥ १३॥ आतमक अहित विषय-कपाय। इनमें मेरी परणति न जाय ।। में रहों गरम आप लीन । सो करो होहुँ ज्यों निजाधीन ॥ १५ ॥ मेरे न चाह कछु और ईश । रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश ।। मुझ कारजके कारण सु आप। शिव करहु हरहु पम मोहताप ॥ १५ ॥ शशि शांतिकरन तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तुम कुशल देव ॥ पीवत पियूष ज्यों रोग जाय । त्यों तुम अनुभवतै भवनसाय ॥ १६॥ त्रिभुवन निहुंकालमसार कोय। नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ।। मो र यह निश्चय भयो आज । दुखजलधि उतारन तुम जिहाज १७॥ दोहा तुम गुण-गया-मणि गणपती, गनत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पपति किमि कहै, नमूं त्रियोग सम्हार ॥१८॥ देखो जी यादीश्वर स्वामी, फैसा ध्यान लगाया है । यर ऊपरकर सुभग विराजे, यासन थिर ठहराया है। देखो जी० ! टेक ॥ जगतविभूति भूतिसम तजिकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभिा श्वासा, प्राचावासा नासादृष्टि सुहाया १ गणघरदेव । २ मन पचन काय । ३ भस्म जसी १४ सुगधिन । • दिशासपी पक्ष-दिगदरता ।
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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