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________________ २ दौलत - जैनपदसंग्रह | विध पद अनेक || तुम जगभूषन दूपनवियुक्त | सब महिमायुक्त विकल्पयुक्त || ४ || अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप । परमात्म परमपावन अनूप ॥ शुभ अशुभ- विभाव अभाव कीन । स्वाभाविकपरनतिमय छीन ॥ ५ ॥ अष्टादशदोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर || मुनि गणधरादि सेवत महंत । नवकेवललब्धि-वमा घरंत ! | ६ || तुप शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जै हैं सदीव || भवसागरमें दुख खार-धारि । तारनको और न आप टारि ॥ ७ ॥ यह लखि निजदुखगेदहरणकान । तुम ही निमित्तकारण इलाज | जाने, तातै मैं शरन आय । उचरों निजदुत नो चिर लहाय ॥ ८ ॥ मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि थाप । अपनाये विधिफलै पुण्य पाप || निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ॥ ६ ॥ आकुलित भयो श्रज्ञान धारि । ज्यों | मृग मृगतृष्णा जान चौरि ॥ तन परनतिमें आपौ चितार || कवहूं न अनुभयो स्वपद सार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश | पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु-नारक- नर 'सुरगति प्रकार । व घर घर मायो अनंन वार ॥ ११ ॥ काल दयाल | तुम दर्शन पाय भयो खुशालं । मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद । चाख्यो स्वातपरस दुखनिकंद ॥ १२ ॥ ता व ऐसी काहु नाथ । विलुरै न कभी तुम चरण साथ || तुम गुण गणको नर्हि छेवै देव । १' अपरिमाण । २ रोग | ३ कर्मफल । ४ पानी । ५ पार
SR No.010037
Book TitleDaulat Jain Pada Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages83
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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