SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दश - वैकालिक - सूत्र ! नवम अध्ययन | चतुर्थ उद्देश | । आत्मा हय धर्मेस्थित चित्तस्थिरताय । आत्मस्थ धरमे जने स्थापन कराय || श्रुत ज्ञान लाभ करि साधु तपोधन । श्रुत समाधिते सदा अनुरक्त हन ॥३ चतुर्विध भेद हय तपः सनाधिर । शुन मनोयोगे इहा साधक सुधीर ॥ करिवेना तपः इह परलोक तरे । संसार सम्बन्ध सब त्यजिवे अचिरे ॥ कीर्ति वर्णादि श्लाघार्थे तपस्या त्यजिवे । निर्जरा व्यतीत अन्य तपस्या छाड़िवे || श्लोके इहा पुनर्वार हयेछेो वर्णित । शुन उहा सावधाने साधु सत्यव्रत ॥ त्रिविध गुणेर स्थान - तपस्या निरत । हइवेन साधुवर भवे अविरत ॥ निर्जरा लोलुप हये वासना छाड़िवे । पूर्व्व पाप तपोवले विनाश करिवे ।। एइ रूपे तपोरत लभि ज्ञान धन । तपः समाधिते रत हन साधुजन ||४ चतुर्विध आचार | साधु उहा था सुसाध्य सवार ॥ १५१
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy