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________________ ० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस-(५३)-मा. दान्ता इन्द्रियदमनेनोच्यन्ते । श्तश्च मरसाधूनां नानात्वं ज्ञेयम् ॥५॥ इति परिसमाप्तौ । ब्रवीमि न स्वमनीषिकया। किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति । इत्यवचूरिकायां सुमपुष्पिकाध्ययनं प्रथमम् ॥ १॥ :- (अर्थ.) पूर्वोक्तरीतें (महुगारसमा के०) मधुकारसमाः एटले जमरसरखा (बु का के ) धर्माधर्मादितत्त्वना जाण, तथा (जे के० ) ये एटले जे (अणि स्सिया के ) अनिश्रिताः एटले कुलादिकना प्रतिबंधयी रहित अर्थात् साधुए एम नहीं केह के, हुं अमुकनाज घरनो आहार लश्श. अथवा एज जातनो आहार लश्श. तथा ज्ञात कुलने विषे पण आहार लिये नहीं, अथवा शास्त्र नणावी, धर्मोपदेश करी तेने घेर आहार लिये नहीं. कारण के, एम करे तो ते गृहस्थ उपकारी जाणीने सरस मधुर आहार आपे, तेथी अप्राशुक, तथा आधाकर्मथी अने उपदेशकपणें आहार लेवानो दोष लागे,माटे जे ठेकाणे पोताने कोइ जाणे नहीं एवा अज्ञात कुलने विष नीरस, निस्तेज एवो आहार साधु लिये जे. तथा ( नानापिंगरया के) नानापिंकरताः एटले प्राशुक आहार जे लेवानो ते एक ठेकाणें न लेतां अनेक घरना जे नानापिंड ते विविधप्रकारना अन्नना ग्रासो तेने विषे रक्त एटले आसक्त अने (दंता के०) दांताः एटले जीत्यां ने पांच इंजियो जेमणे एवा साधु होय बे, (तेण के०) तेन एटले ते कारण माटेज ते (साहणो के०) साध्नवंति मुक्तिं अहिंसादिनिस्ते साधवः एटले अहिंसा दिलदण धर्मने निरतिचार पणे पालन करीने जे मुक्तिनुं साधन करे , तेमने साधु ए प्रकारें ( वुच्चंति के) उच्यते एटले केहवाय जे. (त्ति बेमि के०) इति ब्रवीमि एटले एम हुँ तीर्थकरना उपदेशथी कडं.. एम सांजवाचार्य पोताना पुत्र मनकने कहे ॥५॥ अहीं उमपुष्पिकानामक प्रथम अध्ययन पूरुं थयु. एमां अमपुष्प अने भ्रमरना दृष्टांतथी साधुनी आहारचर्याकथनपूर्वक धर्मप्रशंसा कही, ए कारणथी ए अध्ययनसुमपुष्पिका एq नाम पाडेलु जे. हवे आ इमपुष्पिका नामक प्रथमाध्ययनमां धर्मप्रशंसा जे , ते प्रतिपाद्यविषय बे, अने ए, दशवैकालिक शास्त्रनुं आदि मंगलरूप , तथा आ शास्त्रमा प्रतिपाद्य जे यतिचर्या ते सर्वधर्ममूल बे, माटे ए अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही. अने धर्म, जे लक्षण ते तो घणा विस्तारसहित शास्त्रमा अनेक स्थडे कयुं बे, तेथी अहिं कडं नथी जो ते अहिं कहियें तो घणो विस्तार थाय, माटे सामान्यथीज धर्मनुं लक्षण कबुंडे के ‘आप्तवचनं धर्मः' आप्त एटले रागादिकना अनावथी जे अप्रतारक तेनेज आप्त कहिये, अने एवा तो मात्र एक वीतरागज बे.. तेमनुं जे वचन
SR No.010035
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorSamaysundar, Haribhadrasuri
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages771
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size60 MB
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