SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ धरित्रीसें - कोष और कोष्ठागारसे बढते हुए मंत्रीराज धर्मार्थकामसे अपने अमूल्य जीवनको सफल और सार्थक करते हुए अन्यान्य कार्योंसे निवृत्ति पाकर धोलके पहुंचे थे किपूर्वसंचित शुभकर्मो के योगसे श्रीनयचन्द्रसूरिजी भी ग्रामानुग्राम विचरते हुए धौलके पधारे । ॥ गुरूपदेश और सेवाधर्म ॥ मंत्रीराज सपरिवार गुरुसेवामे हाजर हुए । सूरिजीने धर्म . देशना देते हुए दान धर्मको खूब पुष्ट किया । सुपात्रदान १ अभयदान २ धर्मोपष्टंभदान ३, इन तीन ही प्रकारोंमें सर्वप्रकाका समावेश करके दानकी कर्त्तव्यताको ऐसे जोशीले शब्दों में वर्णन किया कि भिक्षाचरकोभी दान देनेकी रुचि पैदा होजाय । विशेष फल यह आया कि वस्तुपाल तेजपालके मनमे दृढतर यह धारणा होगई कि - "लक्ष्म्याभरणं दानं " यह वचन टंकशाली है, तत्काल ही दोनो भाइयोने उस उपदेशको सफल कर दिखाया । • जहाँपर सदाकाल अन्नपानी दिया जाय ऐसी अनेक दान शालाएँ बनवाई | रसोइयोंको हुकम करदिया कि सर्वजीवात्मा 'हमको समान है, याचक चाहे कैसी भी हालतमे आवे उसको मुंहमांगी वस्तुएँ खिलाओ । गौ वगैरह चौपदों को कबूतर वगैरह पक्षियोंको यावत् जलचर-थलचर खेचर आदि सर्वजीवोंको दान दो । मनुष्योंकी विशेष भक्ति करो, कारण कि - मनुष्य जीते रहेंगे तो वह अन्यजीवोंका रक्षण कर सकेंगे । सर्व जीवोंको अन्न शुद्ध करके खिलाओ, पानी छानकर पिलाओ।
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy