SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ राजा भीमदेव मेरे स्वामी हैं वह खुद सिंहासनसे उठकर मुझपर निष्प्रयोजनभी वार करेंगे तो मै प्राणान्तमेभी उनके सामने आंख ऊंची न करूंगा, और यदि दूसरा कोई वीरमानी मुझे कैद करनेकी ताकत रखता हो तो अच्छीतरह सोच विचारकर मेरे सामने आना, मेरे हाथकी तलवार भलेभलोंकी गरदनकों धरतीपर गिराकर बडी देरमे जाकर शान्त होगी। सत्यकी देवताभी सहायता करते हैं तो मानवोंका तो कहना ही क्या? विमलकी इस प्रतिज्ञाको सुनते ही "संग्रामसिंह" दंडनायक (सेनापति) जो कि राजाका मामाभी था प्रत्यक्ष विरोधी हो पड़ा, इतनाही नहीं बल्कि विमलकुमारकी राजभक्ति, सत्यता, वीरतासे कुछ गिने गांठे मनुष्योंको वर्जके सारा राजमंडल और संपूर्ण प्रजावर्ग भी राजासे विरुद्ध होगया । " आखीर परिणाम यह हुआ कि राजा भीमदेवकी आज्ञाको मान देकर विमलकुमारको पाटण छोडकर "चन्द्रावती" जाना पडा!!। “यत्रापि तत्रापि गता भवन्तो, हंसा महीमण्डलमण्डनाय । हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां, येषां मरालैः सह विप्रयोगः ॥१॥" 'इस घटनाके समय चन्द्रावतीमे "परमार" वंशीय “धन्धुकराज" राजा राज्य करता था, विमल पाटणसे रवाना हुआ
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy