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________________ ११० धन जो लेलिया जाता था उसका लेनाभी अकरने बंद कर दिया । कई वर्ष पूर्व हीर विजयसूरिका विस्तृत चरित सरस्वतीमें प्रकाशित हो चुका है । उसमें भी इन बातोंका वर्णन है । इस लेसका सारांश लिखनेमें संपादक महाशयने एक जगह लिसा है-अने पोतानी पासे जो म्होटो पुस्तक भण्डार हतो ते ग्ररिजीने समर्पण कर्यो ।" पर मूललेससे यह बात सावित नहीं होती । उसमें तो सिर्फ इतनाही लिखा है कि द्वाग्भिर्मुदितकार करुणास्फूर्जन्मनाः पौस्तकं । भाण्डागारमपारखायमयं वेश्मेव वाग्दैवतम् || इसका अन्वय इस प्रकार हो सकता है- " ( यः अकच्चरः ) अपारवमयं पौस्तकं भाण्डागारं वाग्दैवतं वेश्मेव, चकार ।" अर्थात् जिस अकबरने अपार वामयमय पुस्तका - गार, सरस्वतीके घर के सदृश, (निर्माण) किया । इससे इतनाही सूचित होता है कि अकबरने हीरविजयमूरिकी आज्ञा या प्रार्थनासे कोई पुस्तकालय खोला, यह नहीं कि उसने अपना पुस्तकसंग्रह सूरिजी को दे डाला । जीर्णोद्धार किये गये इस मंदिरकी प्रतिष्ठा सेठ तेजपालने, संवत् १६५० में, हीरविजयसरिसे कराई | खम्भात से वह वहां खुद आया और प्रतिष्ठापनकार्यका संपादन किया । यथा शत्रु गगनवाणकलामितेन्दे यात्रां चकार सुकृतायसतेजपालः ।
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
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