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________________ १०३ तो हिसावही नहीं । उनकी गिनती तो शायद लाखोंतक पहुंचे । पर वे इस काममें भी अपने साहित्य-प्रेमको नहीं भूले । मंदिरों में इन लोगोंने बड़े २ लेख और प्रशस्तियां खुदवा दी हैं । उनमेंसे कोई कोई लेख इतने बड़े हैं कि उन्हें छोटे मोटे खण्ड-काव्यही कहना चाहिये । यहांतक कि मूर्तियोंतकमें उनके प्रतिष्ठापकों और निर्माताओंके नामनिर्देश आदिके सूचक छोटे २ लेख पाये जाते हैं। ___ यदि इन सबका संग्रह प्रकाशित किया जाय तो शायद महाभारतके सदृश एक बहुत बड़ा ग्रंथ होजाय । मंदिरों और मूर्तियोंके यह प्राचीन लेख इतिहासकी दृष्टिसे बड़ेही महत्त्वके हैं । इनमें उस समयके राजाओं, राजकुमारों, मत्रियों, बादशाहों, शाहजादों आदिकामी, सन्-संवत् समेत उल्लेख है और निर्माताओं तथा उद्धारकोंकी भी वंशावली आदि है। इसके सिवा जैनसंघों और जैनाचार्यों आदिकी वंशपरम्पराके साथ औरभी कितनीही बातोंका वर्णन है। जैनोंके कोई कोई तीर्थ ऐसे हैं जहां इस प्रकारके प्राचीन लेख अधिकतासे पाये जाते हैं । पर तीर्थोंहीमें नहीं, छोटे छोटे ग्रामोंतक के मंदिरोंमें प्राचीन लेख देखे जाते हैं। इन लेखोंमें जैन साधुओंके कार्यकलापका भी वर्णन मिलता है। किस साधु या किस मुनिने कौनसा ग्रंथ बनाया और .. कौनसा धर्म-बर्द्धक कार्य किया, ये बातेंभी अनेक लेखोंमें निर्दिष्ट हैं । अकबर इत्यादि मुगल बादशाहोंसे जैन-धर्मको कितनी सहायता पहुंची, इसकाभी उल्लेख कई लेखोंमें है।
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
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