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________________ १०२ इस रचनाका बहुत कुछ अंश इस समय अप्राप्य है। कुछ तो अराजकताके कारण नष्ट होगया, कुछ काल बली खा गया, कुछ कृमिकीटकोंके पेटमें चला गया । तथापि जो बचें रहा है उसेभी थोड़ा न समझना चाहिये । अबभी जैन मंदिरों में प्राचीन पुस्तकोंके अनेकानेक भाण्डार विद्यमान हैं। उनमें अनंत ग्रंथरन अपने उद्धारकी राह देख रहे हैं। ये ग्रंथ केवल जैन धर्मसेही संबंध नहीं रखते । इनमें तत्त्व-चिन्ता, काव्य, नाटक, छन्द, अलंकार, कथा-कहानी और इतिहास आदिसेभी संबंध रखनेवाले ग्रंथ हैं, जिनके उद्धारसे जैनेतर जनोंकी भी ज्ञान-वृद्धि और मनोरंजन हो सकता है । भारतवर्ष में जैन धर्मही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी साधुओं (मुनियों) और आचार्यों से अनेक जनोंने, धर्मोपदेशके साथही साथ अपना समस्त जीवन ग्रंथ-रचना और ग्रंथ संग्रह में खर्च कर दिया है। इनमेंसे कितनेही विद्वान्, बरसातके चार महीने तो, बहुधा केवल ग्रंथ-लेखनहीमें विताते रहे हैं । यह इनकी इसी सत्प्रवृत्तिका फल है जो बीकानेर, जैसलमेर और पाटन आदि स्थानोंमें हस्तलिखित पुस्तकोंके गाड़ियों बस्ते अबभी सुरक्षित पाये जाते हैं। __ मंदिर-निर्माण और मूर्तिस्थापनाभी जैनधर्मका एक अङ्ग समझा जाता है । इसीसे इन लोगोंने इस देशमें हजारों मंदिर बनाडाले हैं और हजारोंका जीर्णोद्धार कर दिया है। मूर्तियोंकी कितनी स्थापनायें और प्रतिष्ठायें की हैं, इसका
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
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