SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व . १६१ आदिनाथ-चरित्र हृदय आई होता है, उसी तरह दूर उछलने वाले भगवान के स्नानके जलसे देवताओंके कपड़े आर्द्र होगये यानी तर होगये । जिस तरह ऐन्द्रजालिक अपने इन्द्रजालका उपसँहार करता है, उस तरह इन्द्रने उन चारों बैलोंका उपसंहार किया । स्नान करानेके बाद, घनी प्रीतिवाले उस देवराज ने देवदूष्य वस्त्रसे प्रभुके शरीरको रत्नके आईनेकी तरह पोंछा। रत्न-निर्मित पट्ट के ऊपर निर्मल और चाँदीके अखण्ड अक्षतोंसे प्रभुके पास अष्ट मङ्गल बनाये। पीछे, मानो बड़ा अनुराग हो इस तरह उत्तम अङ्गरागसे त्रिजगत् गुरुके अङ्गमें विलेपनकर प्रभुके हँसते हुए मुख रूपी चन्द्रकी चाँदनीके भ्रमको उत्पन्न करने वाले उज्ज्वल दिव्य वस्त्रोंसे इन्द्रने पूजाकी और प्रभुके मस्तक पर विश्वके मुखियत्वका चिह्न रूप वज्र यानी हीरे और माणिकों का सुन्दर मुकुट पहनाया । पीछे इन्द्रने सन्ध्या-समय आकाशमें पूरब पश्चिम तरफ जिस तरह सूरज और चन्द्रमा शोभा देते हैं; उसी तरहकी शोभा देने वाले दो सोनेके कुण्डल स्वामीके कानोंमें पहनाये । मानो लक्ष्मीके झूलनेका झूलाही हो वैसी विस्तार वाली मोतियोंकी माला स्वामीके गलेमें पहनायी । सुन्दर हाथीके बच्चे के दाँतोंमें जिस तरह सोनेके कंकण पहनाये जाते हैं, उसी तरह प्रभुके बाहु दण्डोंपर दो बाजूबन्ध पहनाये। सौधर्मेंद्र का प्रभु को स्तुति करना। वृक्ष की शाखाके अन्तिम भाग के गुच्छे जैसे गोलाकार बडे
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy