SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र मित्र, जीवानन्दके साथ, उन मुनिराजके पास गये। वह मुनि महाराज एक बड़ के वृक्ष के नीचे, वृक्ष के पाद की तरह निश्चल होकर, कायोत्सर्ग में तत्पर थे। मुनि को नमस्कार करके उन्होंने कहा,-'हे भगवन् ! आज चिकित्सा-कार्य से, हम आपके धर्मकार्य में विघ्न करेंगे। आप आज्ञा दाजिये और पुण्य से हमपर अनुग्रह कीजिये। मुनि ने ज्योंही चिकित्सा की आज्ञा दी, त्योंही वे एक मरी हुई गाय को ले आये ; क्योंकि सद्वैद्य कभी . भी विपरीत चिकित्सा नहीं करते। इस के बाद उन्होंने मुनि के प्रत्येक अङ्ग में लक्षपाक तेल की मालिश की जिस तरह क्यारी का जल बाग़ में फैल जाता है ; उस तरह वह तेल उन की नसनस मे फैल गया। उस तेल के अत्यन्त उष्णवीर्य होने के कारण, मुनि बेहोश होगये। उग्र व्याधि की शान्ति के लिए उग्र औषधिका ही प्रयोग करना पड़ता है। तेल से व्याकुल हुए कृमि मुनि के शरीर से इस तरह निकलने लगे ; जिस तरह बिल में जल डालने से चींटियाँ बाहर निकलती हैं। कीड़ों को निकलते देख, जीवानन्द ने मुनि को रत्न-कम्बल से इस तरह आच्छादित कर दिया, जिस तरह चन्द्रमा अपनी चाँदनी से आकाश को आच्छादित कर देता है । उस रत्न-कम्बल में शीतलता होने की वजह से, सारे कीड़े उस में उसी तरह लीन हो गये; जिस तरह गरमी के मौसम की दोपहरी में तपी हुई मछलियाँ शैवाल में लीन हो जाती हैं। इसके पीछे रत्न-कम्बल को बिना हिलाये धीरे. धीरे उठाकर, सारे कीड़े गाय की लाश पर डाल दिये गये।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy