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________________ ९३५ कहना न होगा अभ्युदयकाल की गद्य काव्यात्मक लाभों में पृथ्वीचन्द्र चरित अथवा वाला अपूतपूर्व योग देती है। धोकाधिकार' मद्य काव्य की परम्परा में १५वीं इसाब्दी में पृथ्वीचन्द चरित के पश्चात एक महत्वपूर्ण रचना शोकाधिकार मिली है। यह रचना भी पृथ्वीद्र चरित की भांति प्रासबबध पैली में रची गई है। रचना की प्रति पुनि जिनविजय जी को उपलब्ध हुई। प्रति में रचना संवत् नहीं उपलब्ध होता प्रति की लिखावट, पड़ी मात्राएं अके मयले उ का प्रयोग आदि तथ्यों से मान किया जा सकता है कि यह १५ शताब्दी के उत्तराय के अन्तिम दशक में लिखी गई होगी।लाकार का नाम भी अशात 1 रचना क्या प्रधान है। वस्तु मयावधि उपलब्ध रचनाओं में एकदम मौलिक वथा सुन्दर है। रचना प्रकाशित रूप में प्राप्त है। इक ही जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस के प्रमुख पत्र जैन शुग में डा० ह०चु० भायाणी ने इसे प्रकाशित किया है।रचना की क्या वस्तु के आधार पर इसका नामकरण भी डा० भायानी में शोकाधिकार किया है जो पर्याप्त संगत है।" होकाधिकार का क्या प्रसंग बहुत ही करून तथा संत है में क्या सार इस प्रकार है: महावीर ने गर्म में माला को मार है परेशान देकर महीने अपना बार हल्का कर लिया और कर्म में भंग स्कूरम और स्कुरण गाता को कष्टप्रद होगा वही जानकर वे विकु सूक्ष्म बन गए। मां ने कंद करदी अंग वाकी ने मेरा गर्म नष्ट कर दिया है। वह जान कर अन्य चौकविला हो गई। सारे काकाद में डोक की कर व्यान हो गई वारी स्थिति बिक्न हो गई महावीर के को पहुंचाने वाले इस कार्य नेमी को अत्यधिक कष्ट दे दयावीर में से अपनी उंगली कड़काई। स्पन्दन से मां का शोक दूर होकर नाच हो गया। विष में रचनाकी यही कथा है। कल्पसूत्र, सुबोध टीम दथों में यह वर्णन विस्तार से मिलता है। ३, १९५८०९-१
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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