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________________ इनके बच्चे रोते-रोते- भूखे ही भूपर सो जाते। उठनेपर जल्दीसे नीरस कोदोंकी रोटी खा जाते ७ है दुग्ध और घृतका सुनाम जिनको सुनने तक ही सीमित। रोटी 'खानेकी सिर्फ आश इनको करती रहती प्रेरित।८ इतनेपर मुखियाकी विगार करनी पड़ती बेचारोंको । पैसे मँगनेपर पड़ जाती दो-चार जूतियाँ दुखियोंको ।१२ x वर्षामें इनका घर चूतासर्दी में पड़ती खूव प्रोस। गर्मीमें छप्पर फोड़, सूर्यपीड़ित करता पर नहीं जोश ।१३ x आता इनको, क्योकि दरिद्र चिन्तित होनेसे क्षीण काय । वेचारे कर ही क्या सकते , करते रहते बस हाय-हाय ।१४ वस पांच हाथका इनका घर वह भी है कच्चा जीर्ण शीर्ण। ऊपरसे छाया जहाँ फूस है अङ्क-अङ्क जिसका विदीर्ण ।६ उसमें रक्खा चूल्हा कच्चा इस तरह दुखित,फिर भी, किसान रक्खी है चक्की वही एक । देते हैं हमको खूब अन्न । है पड़ी वही टूटी खटिया पर हमें कहाँ इनका सुध्यान काली हन्डी भी पड़ी एक ।१० क्योंकि, हम हैं अभिमान-छन्न ।१५ X होती है खुजली इन्हें खूब रहते हम उन प्रासादों मेंपरोंमें फटी विमाई है। अम्बर-चुम्वी जो हैं विशाल । ज्वरसे रहते ये सदा ग्रस्त जिनके घर्षणसे लोक प्रकट इसलिए कि भूखी नारी हैं ।११ है चन्द्रराजका कृष्ण भाल ।१६ - १७१ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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