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________________ श्री ज्ञानचन्द्र जी जैन, 'आलोक' रहनेवाले हैं। वर्तमानमें । श्रापका साहित्यिक क्षेत्रमें श्री ज्ञानचन्द्रजी जिजियावन (झाँसी) के आप स्याद्वाद -महाविद्यालय, काशीके स्नातक हैं यह प्रथम प्रवेश है । आपकी रचनाएँ सरल र सुवोध होती हैं । श्राशा है, भविष्य में "प्रालोक" जीकी झालोकपूर्ण रचनात्रोंसे माता सरस्वतीका मन्दिर अधिकाधिक प्रालोकित होगा । किसान --- गर्मीकी भीषण गर्मीम सहते दिनकरका तेज ताप । भूखे-प्यासे हल हाँक रहे जिनके दुःखोंका नहीं माप १४ X भारत भूके भूषण स्वरूप स्वर्णिम टुकड़े वे अल्प ग्राम । जो इवर उवर वीरान पड़े हैं कहीं वसे दो चार वाम ॥१ X वे ही हमको देते जीवन चे ही हम सबके कर्णवार । उन सबमें रहनेवाले ही देते हैं हमको अन्नसार १२ X ये हैं किसान जो दिन-दिन-भर करते रहते श्रम शिरसे एड़ी तक चूती है बेशुमार । जिनके तनमें नित स्वंद बार 1३ 4x है नहीं पैरमें जूती भी शिरपर टोपीका नहीं नाम । तनपर वस्त्रोंका है प्रभाव अवशिष्ट सिर्फ है कृष्ण चाम १५ X पानी पीनेको मिट्टीका फूटा खानेको मिलते ऐसा वेढव १७० - इन्हें एक वर्तन है । चार कोर परिवर्तन है ।६
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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