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________________ विश्वम्भर अन्नपूर्णाके, सुतका जव ही यह हाल, हन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त । (२) परसेवा जिसका एक ध्येय , • तनकी जिसको परवाह नहीं ! मानव मानवको खीच रहा , यशकी जिसको कुछ चाह नहीं ! भूखे नंगे बच्चे फिरते , मुंहसे न निकलती कभी ग्राह । रोटी-रोटीका जटिल प्रश्न , जिसको करता प्रतिक्षण तवाह । भारत माके इन पुत्रोंका , इस तरह जहाँ हो विकल अन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त । आ गया द्वार पर वह देखो , दिख रहा क्षीण कंकालमान ! औरत वच्चे सव भूख-भूख , चिल्लाते करमें लिये पात्र !
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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