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________________ पर नहीं तरस हम खाते हैं, कह देते जा आगे बढ़ जा ! पा रहा किया जो कुछ तूने , कल मरता था अब ही मर जा । .. इस तरह भूखकी ज्वालामें , जलते रहते प्रतिक्षण अनन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त । ( ४ ) इस तरफ गगनचुम्बी आलय , जिनमें रहते दो-तीन प्राण ! मानवताका उपहास यहाँ , मानवता बैठी मूर्तिमान । दूसरी तरफ हम देख रहे , टूटी कुटियापर घास-फूस। . बकरी भेड़ोंकी तरह सदा जन रहते जिनमें ढूंस-ठूस ! इस तरह विषमताकी ज्वाला, होती जाती प्रतिक्षण ज्वलन्त । मैं समझ नहीं पाया अब तक , किस तरह मनाएँ हम वसन्त ।
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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