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________________ पन्थी शाका दीप जलाये पन्यी चला ग्राज किस पथपर ? पैर बढ़ाये चला जा रहा अपने गरपर रखकर गठरी ; कहां हृदयकी प्याग बुझाने चला छोड़कर है यह नगरी । भूल न जाये राह, जा रहा मनमें किसकी दुआ मनाता, जीमें किस उलझनके सुन्दरमे मुन्दर यह स्वप्न वनाता । घरपर वाट देती होगी बैठी क्या, इसकी भी गती ; याद इसे भी ग्राती होगी ग्रपनी बीती हुई कहानी । किसे सुनाये, किमे बताये, राह अकेली, साथ न प्रियवर ; आमाका दीप जलाये पन्थी चला ग्राज किस पथपर ? अरमानोंमें झूम रही है क्या इसके भी एक दुराना ; जिसके कारण कुलाया-सा बढ़ा जा रहा भूसा प्यासा जीवनकी दुविधामांने नित इमे कर दिया है क्या उन्मन ; गूंज रहे कानोंमें इसके प्राणोंके क्या शत-शत क्रन्दन । वावाने तोड़ दिया क्या इसका ग्रन्तिम एक सहारा ; ढूंढ रहा है क्या दुनियाके जानेको उम पार किनारा । कोन प्रेरणा लेने देती इसको चैन कही न घढ़ी-भर ; का दीप जलाये पत्थी चला ग्राज किस पथपर ? १०५ -
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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