SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिये खड़ा है विरह मिलनका सुन्दरसा उपहार ; राह हासकी देख रहा है उन्मन हाहाकार । एक भाग लेकर विरागकी जलता है अनुराग ; मुग्ध प्रतीक्षामें आशाकी रही निराशा जाग । नाव गीत गाता विकासके, करता है मनुहार ; पाप जलाये दीप पुण्यका, भांक रहा है द्वार । मृत्यु मानिनी-सी करती है जीवनका उपहास ; और हाय, मैं वना हुना हूँ, परिवर्तनका दास । बहिनसे मुझ से हृदयहीन भाईके वहिन बांध मत राखी ; जिसने तुझ दुखिया अवलाकी है न कभी पत राखी। जो अपने स्वार्थोपर तेरी नित वलि देता आया ; जिसके दिलमें दर्द नहीं है, नहीं कसक है वाक़ी । तू अपने दुःखोंसे रो-रो, हँस-हंस जूझ रही है ; और इधर यह ढूंढ़ रहा है सुरा, सुराही, साक़ी । यह निर्मम वेसुव अस्नेही वना पुरुषसे पशु है ; उसे बना सकती न पुरुष फिर तू या तेरी रात्री। अरी छोड़ भाईकी छाया कसके कमर खड़ी हो ; दिखला दुर्गा और भवानीकी-सी फिरसे झांकी। : - १०४ :
SR No.010025
Book TitleAadhunik Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRama Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy