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________________ गुरुदेव की सेवा में सच्चे दिल से सदैव तत्पर रहा करते थे। आपको गुरुदेव गच्छ सञ्चालन की शिक्षा तथा आत्मोन्नति का भी पाठ पढ़ाया करते थे। पर गुरुदेव इन्हे दिल्ली जाने की मनाई हमेशा किया करते थे। सं० १२१४ में हमारे चरित्र नायक श्रीमान् जिनचन्द्र सूरि जी महाराज त्रिभुवन गिरि पधारे। वहां दादा श्रीमान् जिनदत्त सूरि जी के हाथ से प्रतिष्ठापित, श्री शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर के ऊपर स्वणे दण्ड, कलश, और पताका इन्होंने बड़े महोत्सव के साथ चढ़वाई। इसके बाद साध्वी हेम गणवती देवी को प्रवर्तिनी पद दिया। वहां से बिहार कर मथुरा आये! वहा सं० १२१७ मे फाल्गुन वदि १० को पूर्णदेव गणि, जिनरथ, वीरभद्र, वीरनय, जगहित, जयशीलभद्र और नरपति आदियों को श्री महावीर स्वामी के मन्दिर में दीक्षा दी। उसके बाद मरोठ आये। मरोठ में चन्द्र प्रभु स्वामी के मन्दिर पर स्वर्णदण्ड कलश, और ध्वजा चढ़वाई। मरोठ से आचार्य महाराज सं० १२१८ में सिन्ध प्रात की ओर चल पड़े। सिन्ध प्रान्त में विनय शील, गुण वर्द्धन, भानुचन्द्र आदि साधुओं और जग श्री, सरस्वती, गुण श्री, नाम की तीन साध्वियों को दीक्षा दो। इसी तरह और भी साध्विया और साधु समय समय पर दीक्षित होते रहे। सं० १२२१ में आप सागर पाड़ा गये। वहां से अजमेर जाकर आपने स्वर्गीय श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज के स्तूप की प्रतिष्ठा की। उसके बाद बब्वेरक गये जहां आपसे गुणभद्र गणि, अभयचन्द्र, यशचन्द्र, यशोभद्र, देवभद्र और देवभद्रकी स्त्री को दीक्षा दी गई । हांसी में नागदत्तको उपाध्याय पद दिया गया महावन नामक स्थान मे श्री अजित नाथ स्वामी के मन्दिर की आपने विधि पूर्वक प्रतिष्ठा की। इन्द्र पुर में शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर पर स्वर्णदण्ड कलश और ध्वजा की प्रतिष्ठा की । लगता ग्राम में वाचक गुण भद्र गणि के पिता महलाल श्रावक के बनवाये हुए अजित नाथ स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १२२२ में वादली नगर के भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर पर स्वर्ण दण्ड कलश, और पताका लगवाई, इसी तरह अम्बिका देवी के मन्दिर पर भी । उसके वाद आचार्य महोदय सदुपल्ली गये। सदुपल्ली से विहार करते हुए नरपाल पुर पधारे। वहां एक मानी ज्योतिपी आप से मिला। बहस छिड़ गई। आचार्य ने कहा, चर, स्थिर, और द्विस्वभाव तीन तरह के लग्न होते हैं, तुम इनमें से किसी एक का भी स्वभावतः प्रभाव दिखाओ, तब मैं समझू कि तुम सच्चे ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता हो। पर ज्योतिषी से कुछ भी जवाब देते न वना, क्योंकि लग्न के स्वभावानुकूल काम प्रत्यक्ष दिखा देना बड़ा ही कठिन था। अतएव उसको हार मान लेनी पड़ी। और आचार्य देव ने वृप ( स्थिर) लग्न के १६ से ३० अंशों के अन्दर मार्गशीर्ष महीने में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के सामने एक शिला स्थापित की और कहा कि यह शिला १७६ वर्षों तक निरन्तर अविचल रहेगी। वहां से आचार्य देव रुद्रपल्ली आये, जहां पद्मचन्द्राचार्य से राज्य के सुप्रबन्ध में शास्त्रार्थ हुआ। पद्मचन्द्राचार्य को अपने अध्ययन का बड़ा ही गर्व था, पर शास्त्रार्थ मे आचार्य देव से परास्त होना पड़ा। आचार्य देव को इस जीत से न हर्प था, न विपाद । हो भी कैसे ? वे तो विनय और ज्ञान को साक्षात् मूर्ति थे उसके बाद श्रीमान ने संघ के साथ विहार करते हुए बोरसीदान ग्राम मे पड़ाव डाला, जहां म्लेच्छों की सेना आने वाली थी। आ भी गई। संघ के लोग डर गये और गुरु महाराज से कहा कि अब क्या किया जाय ? आचार्य ने कहा, आप लोग घबड़ाइये नहीं, जिनदत्त सरि जी की दया से म्लेच्छ सेना कुछ नहीं कर मरुनी । आप लोग अपने पशुओं को इकट्ठे कर एक जगह हो जाइये । वैसा ही हुआ आचार्य प्रभु ने संघ के चारों तरफ ध्यान पूर्वक दण्ड से रेखा खींच दी, जिसका नतीजा यह हुआ कि म्लेच्छ सेना की दृष्टि भी संघ पर कामयाब न हो सको। पड़ाव वाले अदृश्य रहे; फिर भी ये लोग पास से गुजरनी मना को
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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