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________________ [ ३४ ] उत्तम वस्त्र एवं आभूषण पहन कर हाथो ऊपर अथवा पाल की के ऊपर बैठे। अष्ट मांगलिक रचित थाल में कल्प सूत्र धर कर अपने दोनों हाथों में थाल रखे। पालकी अथवा रथ अथवा अम्बारी के दोनों ओर दो पुरुष चमर ढालें। इस प्रकार अनेक तरह के बाजे गाजे, दुन्दभि, वाजों के साथ दान देते हुए मांगलिक गीत गाते हुए नगर की प्रदक्षिणा करके गुरु महाराज के पास आवे। गुरु महाराज भी खड़े होकर विनय सहित पुस्तक को नमस्कार करके, श्री संघ की आज्ञा से नाचे। इस प्रकार जो श्रावक एक चित्त से इसको सुनते हैं और आराधन करते है वे आठवें भव में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। और जो भव्य जीव अट्ठम आदि तप करके कल्प सूत्र को वांचते हैं, सुनने वाले प्रमाद को छोड़कर, अट्ठमादि तप करके, शुद्ध भाव से इक्कीस बार सुनते है वह देवगति को प्राप्त करके तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करते हैं। कल्प सूत्र की महत्ता यह कल्प सूत्र नवम पूर्व से उद्धृत किये हुए दशाश्रुत स्कंध का आठवां अध्ययन है। चौदह पूर्वधारी श्री भद्रबाहु जी ने श्री संघ के कल्याण के लिए प्रसिद्ध एवं प्रचलित किया। जैसे अरिहंत से बढ़ कर कोई देव नहीं है, मुक्ति से बढ़ कर कोई उत्तम पदवी नहीं है, स्निग्धों में घृत से बढ़ कर कोई उत्तम पदार्थ नहीं है वैसे ही कल्प सूत्र से बढ़ कर कोई सूत्र नहीं है। यह कल्प सूत्र पाप का बंधन काटने के लिए एक अनोखी वस्तु है। यह ठोक कल्पवृक्ष की भांति सुनने वालोंके सारे मनोरथ पूर्ण करता है अतएव जो भव्य प्राणी शुद्ध मन से विधि सहित इसको श्रवण करेंगे वे वृद्धि और सुख सम्पदा को प्राप्त करेंगे। भाद्र पद कृष्ण १४ को श्री मणिधारी जिनचन्द्र सूरिजी का स्वर्गवास हुआ है अतः उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र लिखा जाता है। आज से सात सौ वर्ष पहिले की बात है, जैन शासन में अत्यन्त सुप्रसिद्ध, खरतरगच्छ नायक जङ्गम युग प्रधान, बृहद् भट्टारक, मणिधारी जिनचन्द सूरि जी महाराज हो गये हैं। इनका जन्म ११६७ भाद्र सुदि ८ को ज्येष्ठा नक्षत्र में जेसलमेर के निकट विक्रम पुर के सेठ साहरासल के यहां देल्हण देवी के गर्भ से हुआ था। आप जन्म सिद्ध सुशील थे। माता पिता ने आपका नाम रासलनन्दन रखा था। आप बचपन में ही शुभ लक्षणों के बदौलत होनहार मालूम होते थे। एक समय की बात है कि आचार्य महाराज श्री जिनदत्त सूरि जी विचरते हुए आपके यहां आये। और उन्होंने ज्ञान बल से जाना कि यह बालक मेरे उत्तराधिकारित्व को अच्छी तरह निभाने वाला होगा। आचार्य महाराज इनको अपने साथ ले अजमेर पधारे। वहां भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर में सं० १२०३ फाल्गुन सुदि ६ के दिन शुभ मुहूर्त में आपको सविधि दीक्षा दी गई। आप बड़े बुद्धिमान् और मेधावी थे। केवल २ वर्ष की पढ़ाई से आपकी योग्यता प्रातः कालीन सूर्य की तरह प्रस्फुटित हो उठी। आपकी कुशाग्र बुद्धि की वाहवाही जनता में हवा की तरह दौड़ गई। किसीने सच कहा है-"होनहार विरवान के, होत चीकने पात"। सं० १२०५ वैशाख वदि ६ को विक्रम पुर नगरी में भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर मे गुरु प्रवर श्री जिनदन्त सूरि जी ने आपको बड़े आनन्द से आचार्य पद प्रदान किया ! आचार्य पद देने के बाद आपका नाम श्री जिनचन्द सूरि' रखा गया। आचार्य पद का महोत्सव आपके पिता ने बड़े समारोह और धूमधाम से सम्पादन किया! इनकी योग्यता और नम्रता से इन पर गुरुदेव की असीम कृपा थी। फलतः इन्हें गुरुदेव ने स्वयं जैनागम, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं का उपदेश दिया, जिसके द्वारा आप योग्यतापूर्ण चतुरस्र विद्वान् और लोगों के दृष्टिकोण में बहुत ऊंचे उठ गये ! ये
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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