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________________ [१०] उपयोग के बिना जो चीज होगी, वही द्रव्य है । किसी ने सच कहा है- "ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः” अर्थात् ज्ञान के विना मनुष्य पशु के समान हैं । " इस द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं। आगम विपयक ( अर्थात् आगम से ) दूसरा आगम भिन्न विषयक ( अर्थात् नो आगम से ) आगम से वह होता है कि शास्त्र तो पढ़ा, पर शास्त्र का मतलब नहीं समझा । अतएव उपयोग के बिना वह आगम विषयक द्रव्य निक्षेप है। इसी तरह “परोपदेशे पाण्डित्यम्” अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में तो बड़ी योग्यता है, व्याख्यान कला के द्वारा आम जनता में तो खूब वाहवाही है, पर स्वयं अपने में उपदेश का क्रियात्मक उपयोग नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आगम विपय द्रव्य निक्षेप है । दूसरे नो आगम से होने वाले द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं, एक द्रव्य शरीर, दूसरा भव्य शरीर और तीसरा तद्व्यतिरिक्ताज्ञ शरीर वह है कि तीर्थंकर निर्वाण पदवी प्राप्त कर चुके है, उनका मृत शरीर पडा है । अग्नि संस्कार होने वाला है तो जब तक अग्नि संस्कार नहीं हुआ है, तब तक वह ज्ञ शरीर कहाता है । थैली में रुपये थे, खर्च हो गये । थैली खाली पड़ी है जरूरत पड़ने पर आप कहते हैं रुपये की थैली ले आओ। यहां पर यह थैली ज्ञ शरीर दूसरा भेद भव्य शरीर है। तीर्थंकर भगवान् अपनी माता के पेट से जन्म लेने के बाद बचपन अवस्था में जबतक रहे, उनके उस शरीर को भव्य शरीर कहा जायगा । आप किसी बछिये को देखकर कहेंगे, यह बड़ी दुग्धवती गौ होगी तो वह तात्कालिक बछिये का शरीर भव्य शरीर है । तद्व्यतिरिक्त अर्थात्ज्ञ शरीर और भव्य शरीर अतिरिक्तद्रव्य निक्षेपके अनेक उदाहरण हैं, जो कि तीसरे भेदमें आ जाते हैं । जसे -- "ज्ञान हीन मनुष्य है" ऐसा कहा गया है, क्योंकि मनुष्य तो है पर मनुष्यत्व जो ज्ञान है उसका उपयोग नहीं है इसलिये वह आगम भिन्न तृतीय भेद वाले द्रव्य निक्षेप के उदाहरण में आ जाता है। इसी तरह और भी दृष्टान्त अन्वेष्टव्य है । उपर्युक्त विचार विमर्शोका सारांश यह है कि लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, काली, भवानी, तीर्थंकर भगवान् आदियों की मूर्तियां उपयोग रहित हैं, इसलिये द्रव्य निक्षेप में आ जाती हैं । एवं अपने अपने उपासकों से किसी नय की अपेक्षा से वन्दनीय हैं । । भाव निक्षेप जिसका नाम, आकार और लक्षण गुण के साथ-साथ मिलते हों, वही भाव निक्षेप के उदाहरण है । क्योंकि अनुयोग द्वार में कहा है- “उवओगो भाव" अर्थात् जिसमें उपयोग हो, वही भाव निक्षेप का आवास स्थल है । इसीलिये दान, शील, तपस्या, क्रिया, ज्ञान ये सभी भाव निक्षेप से समन्वित होने पर हो लाभदायक सिद्ध हो सकते है । अगर कोई निर्विवेकी मनुष्य बुद्धि की विचक्षणता से यह सावित करने की चेष्टा करे कि मन के परिणाम को सुदृढ़ करके जो कुछ काम किया जायगा, वह भाव युक्त होगा तो वह उसकी गलती है। क्योंकि ढोंग रचने वाले भी अपने स्वार्थ साधन के लिये मन को स्थिर बना कर तपध्यान आदि किया करते हैं, ताकि लोग उसकी माया में फंसा करें और वह अपना उल्लू सीधा किया करे । कमठने पश्चानि तपस्या की जो कि वस्तुतः खूब कठिन थी, पर थी उसकी तपस्या दम्भ - पूर्ण, तो क्या वह काम भावयुक्त माना जा सकता है ? नहीं! कभी नहीं ॥ यहां सूत्रानुसार विधि और वीतराग की आज्ञा में हेय और उपादेय का वर्णन हुआ है । उसकी असलियत को समझ कर अजीव, आश्रव, और बन्ध के ऊपर हेय अर्थात त्यागभाव और जीवका स्वगुण, सम्बर, निर्जरा, मोक्ष उपादेय अर्थात प्राह्य हैं। रूपी गुण है, इसलिये उसे द्रव्य समझ कर छोड़
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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