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________________ [६] किया करते हैं। अगर कोई यह शंका करता है कि मूर्ति तो पापाण, काप्ठ या और किसी जड पदार्थ की होती है, उसकी उपासना से इष्ट सिद्धि कैसी ? तो मैं कहूंगा कि अगर तुम पक्षपान शून्य हृदय से विचार करोगे तो मालूम पड़ जायगा कि जब किसी सुन्दरी नव' युवती औरत को कोई सिनेमा की तस्वीर में या कागज वगैरह के चित्र में देखता है तो प्रत्यक्ष उसकी सुम आसक्ति जाग पड़नी है एवं श्री विषयक नया प्रेम मानस मैदान में चक्कर काटने लग जाता है। अगर संघर्ष बढ़ता गया तो वह धीरे धीरे मन को कार्य रूप में परिणत करने की ओर खींच ले जाता है। नतीजा यह होता है कि अन्त में पथ भ्रष्ट होकर रहता है। यही कारण है कि 'चित्त भित्तं ण णिज्जाए' अर्थात् चित्र में बनाई गई स्त्री को भी मत देखो इस भांति साधुओं को मनाई की गई है। कहने का मतलब यह है कि जब इस तरह सौन्दर्यवान चित्र से पतन होता है तो जिन भगवान् की मूर्ति के अवलोकन पूजन नमन के अभ्यास से उनके मोक्ष साधक गुणों की ओर खींचकर हम लोग एक रोज निर्वाण पद प्राप्त करेंगे-अपने लक्ष्य स्थल पर पहुंचेंगे, यह कोई भी सहदय स्वीकार करेगा। अस्तु, कोई अगर अपने पिता का तैल चित्र चना रखा है तो उसे देखकर वह कह उठता है कि ये पिताजी है। यह सब स्थापना सादृश्य गुण से आधार गत हुई। यह कोई नियम नहीं कि यह स्थापना निर्जीव मात्र में ही हुआ करती है। किसी ब्राह्मण को श्राद्ध में प्रेत बनाकर सनातनी लोग श्राद्ध कर्म किया करते हैं, वहा तो जीव में ही आकार का आरोप होता है। कहीं यह स्थापना आधार गत वैयक्तिक विचार के अनुसार हुआ करती है। जैसे वैष्णव मत में, विवाह में मिट्टी की डली को पूजक अपने विचार मात्र से गणेश मान कर पूजा करने है। वहां मिट्टी की डलो ही गणेश होता है। वैष्णव लोग शालिग्राम पत्थर को ही विष्णु समझ कर पूजा करते हैं। कहीं स्थापना निराधार होगी- व्यक्तिगत विचारानुकूल ( अर्थान् पूजक के अपने विचार के मुताबिक ) होगी। जैसे जैन मत में यति साधु लोग शंख, चन्दन, गोमती चक्र प्रभृतियों का चिना किसी आधार के आकार का आरोप करते है। इसी तरह सनातनी लोग कटोरे में विना किमी शक को आधार बनाये, लक्ष्मी, सरस्वती, राम, कृष्ण आदि देवताओं का आकार मान कर पूजा किया करते है। यह सब निराधार वैयक्तिक विचारानुकूल स्थापना है। उपर्युक्त स्थापना प्राचीन दृष्टिकोण से दो प्रकार की होती है। एक सद्भुत दृमर्ग अमत मिट्टी की डली को गणेश मान लेना असद्भूत स्थापना है। विना आकार के शंग्य, चन्दन, गोमती चक्र प्रभृतिको स्थापना भी असत स्थापना है। क्योंकि यहां उन पदार्थों को पुल समानता नहीं है। सत स्थापना भी कृत्रिम और अकृत्रिम भेद से दो तरह की होती है। कृत्रिम वह है जो मनुष्यों के दाग बनायी गई जिन भगवान् की प्रतिमायें इस लोक में पूजी जाती है। अकृत्रिम , जो नन्दीश्वर मंरपर्वत द्वीप, या देवलोक आदि में जिन भगवान की प्रनिमायें है। उपर्युक विचारों से यह सिद्ध होता है कि पापाण, काष्ठ मिट्टी आदियों में बनी हु मुनियों में स्वत्त्व बुद्धि से पूजा उपासना करना वस्तुतः युक्ति संगन है। और उपासकों को अपने लक्ष्य म्धल तक ले जाने का यह एक सुन्दर तरीका है। न्य निक्षेप जिमका नाम. आकार गुण और लक्षण मिन्टने पर आता उपयोग न मिनो वही द्रव्य निभा । जी अपने अमली न्यरूप को जब नक नही पहिचाननाय नकदी । गोलि योग रहिन जो पा होगा. यह दर । 'अनुयोग द्वार मन में कहा- अशुपओगी दान ज्यान
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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