SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 717
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ११ ] दे। जैसे मन, वचन, काय, लेश्यादिक सभी पुष्पालीक रूपी गुण समझ कर छोड़ दे और ज्ञानें, दर्शन, चारित्र, वीर्य, ध्यान प्रभृति जीव के गुणों को अरूपी समझ कर संगृहीत करे। यही भाव निक्षेप है। सूत्रों में बयालीस भेद निक्षेप के कहे गये हैं। हमने संक्षेपमें वर्णन किया है। बुद्धिमान मनुष्य उपयुक्त तरीके से हरेक वस्तु में चारों निक्षेपों को उतार सकते हैं। इसी तरह जिन भगवान की प्रतिमाओं में हमलोग 'ये जिन भगवान् हैं" ऐसी आस्था रखते है और यह सोचते हैं कि जैसे मूर्तियों में पद्मासन योग शान्त मुद्रा आदि भाव हैं और इन्हीं भावों के द्वारा इनकी भव्य आत्मायें मोक्ष पदवी प्राप्त कर चुकी हैं ; वैसे ही हमलोग भी इन्हीं भावों की प्राप्ति से निर्वाण पद गन्ता बनेंगे, ऐसी भावना निज मनमें हमलोग किया करते हैं। अतएव भावयुक्त प्रतिमाये माननीय है- वन्दनीय हैं, इसमें कोई शक सन्देह नहीं । मूर्तिवाद दिवाल पर टंगे हुए या लिखे हुए स्त्रियों के चित्र भी साधुओं को नहीं देखने चाहिये, क्योंकि मानसिक वृत्तियां विकृत होकर-विकारयुक्त होकर ब्रह्मचर्य से च्युत कर देती है। - दशवकालिक सूत्र [सूत्र में जो कुछ कहा गया है, वह हूबहू सच है, इसमें अत्युक्ति को चू तक नहीं है। क्योंकि कोई भी सहृदय सिनेमा वगैरह के चित्रों को देखकर अथवा यों ही सुन्दरी स्त्रियों के चित्रों को देख कर इसकी प्रत्यक्ष सचाई को महसूस कर सकता है। ऐसी हालत में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चित्रों के अवलोकन से ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने की गुञ्जाइश है, तव सन्मार्ग के प्रवर्तक भगवान् तीर्थङ्कर देव की मूर्ति को चन्दन, नमन, और दर्शन करके हमलोग सन्मार्गके सुदृढ़ पन्था क्यों नहीं बन सकते ? अगर बन सकते तब मूर्ति पूजा की अवहेलना क्यों ?] मल्ली राजकुमारी के साथ छ राजकुमार, जो कि राजकुमारी के पूर्वजन्म में मित्र थे और स्वयं राजकुमारी भी उस जन्म में पुरुष ही थी, शादी करना चाहते थे। राजकुमारी ने सोचा कि जबतक प्रभाव पूर्ण तरीके से काम नहीं लिया जायगा, तब तक ये राजकुमार लोग झूठी शादी से विरक्त नही हो सकते । यही सोच कर उसने एक सोने की मूर्ति बनवाई और उस मूर्ति के उदर गर्भ में एक-एक ग्रास भोजन नित्य प्रति डालने लगी। नतीजा यह हुआ कि मूर्ति का मुख ढक्कन खोल देने पर भोजन के सड़ जाने के कारण बड़ी बवू आने लगी थी। बाद में जब राजकुमारी से शादी करने के लिये छह राजकुमार आये तो राजकुमारी ने छहों राजकुमारों को विवाह मण्डप में बुलाया और स्वयं उस मूर्ति के मुख ढक्कन को खोल कर खड़ी हो गई। जव राजकुमार लोग आये तो वदवू के मारे वे सब बेहद घबड़ाने लगे, राजकुमारी ने कहा, महाराज ! इस सोने की मूर्ति में मैं कुछ ही दिनों से एक-एक ग्रास भोजन डालती रही हूं जिसका फल यह हुआ है कि अभी आपलोग इस मूर्ति के पास ठहरने मे भी असमर्थ हो रहे है, फिर आपलोग जिस मुझको, जो कि मैं केवल हाड़ मांस की मूर्ति के सिवाय और कुछ नहीं हूं, पाने के लिये पागल हो रहे हैं उसमे तो कितने ग्रास भोजन रोज डाले जाते है, तब उससे आखिर जो गन्ध आयेगी, उससे आपलोगों की क्या दशा होगी क्या यह भी सोचते हैं ? इस प्रकार मूर्ति के हष्टान्त से राजकुमार लोर विरक्त हो गये, फलतः सच्चे ज्ञान का उदय हो गया। [ यदि नकली सोने की मूर्ति से असली विराग प्राप्त हो सकता है तो भगवान् वीतराग को मूर्तिय से हमें वह सञ्ज्ञा विराग क्यों प्राप्त नहीं होगा ? इस सवाल का कोई मुनासिव जवाब नहीं, फिर मुक्ति पूजा को सार्थकता से इनकार क्यों ? ] -माता सूत्र
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy