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________________ [८] करते हैं और उस उस योनि में भिन्न भिन्न जातिवाचक नाम से सम्बन्धित हुआ करते हैं। यहां यह कोई नहीं बता सकता है कि इन चौरासी लाख योनियों के नाम किसने रखे १ और वे नाम कब से व्यवहृत हुए। इसीलिये अनादित्व ( अर्थात् जिसकी आदि नहीं है ) और कर्मों के सम्बन्ध मे संयोग सम्बन्ध जन्यत्व अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है। कृत्रिम नाम के भी दो भेद हैं। एक तो सांकेतिक दूसरा आरोपक। सांकेतिक नाम वह है जो माता, पिता या गुरु कृत होता है। अथवा किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा रखा गया होता है। उस नाम का उद्देश्य व्यवहार सम्पादन मात्र होता है। किसी गुण या योग्यता की हैसियत से वह नाम निर्वाचित नहीं होता है। कोई जन्म सिद्ध दरिद्र अपने लड़के का नाम प्रेम से राजकुमार' रखता है। बाद में वह लडका बदनसीवी से चिथड़ों में लिपटे हुए भी काफी सूरत से भूत की तरह होते हुए भी आम जनता में राज कुमार' नाम से ही पुकारा जाता है। कार्य क्षेत्र में कोई अड़चन नहीं आती है। प्रत्युत उस नाम से सम्बन्धित सभी काम खुशी से सम्पादित हुआ करते है। इसी तरह हम लोग पाषाण, काष्ठ, मिट्टी वगैरह की मूर्ति लाते हैं और उसका नाम रख लेते हैं-'जिन भगवान्' फल स्वरूप उसी मूर्ति के सांकेतिक नाम से अपनी इष्ट सिद्धि भी कर लेते हैं। सांकेतिक नाम से किसी गुण या योग्यता का सम्बन्ध नहीं है। सांकेतिक नाम अपेक्षाकृत स्थायी होता है। आरोपक नाम वह है जो सीमित एवं अल्प कालके लिये स्थायी हो। जैसे कोई अपनी गाय भैंस वगैरह का नाम प्यार से गंगा, सरयू आदि कहा करता है। पर वह नाम उसी के परिवार तक सीमित होता है, दूसरी जगह जाने पर उस गाय या भैंस का वह नाम नहीं कहा जाता । वह तो तभी तक था, जब तक कि नामी वहां था। लड़के लोग सड़क पर लकड़ी के कुन्दे को दोनों पैरों के बीच में रखकर और जमीन में हाथ से दवाकर दौड़ते हैं और कहते है-हटो! हटो ! घोड़ा आता है । यहां यह कुन्दा रूपी घोड़ा क्षण भर के लिये है और उसी लडके तक वह नाम व्यवहृत हुआ है। उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि आरोपक नाम सीमित एवं अपेक्षाकृत अस्थायी होता है। यही कारण है कि शिल्पी लोग मिट्टी आदि उपादानों से रामकृष्ण, लक्ष्मी, गणेश, साधुसन्त, महात्मा, दयानन्द प्रभृति देवी देव महापुरुषों की मूर्तियां बनाकर बाजार मे लाते हैं और लोग पैसा खर्च करके ले जाते हैं और अपनी अपनी रुचि के अनुसार पूजते तथा इष्ट प्राप्ति किया करते हैं। इसमें वस्तुतः सचाई है. जो कि दुराग्रह रहित बुद्धि से देखी जा सकती है। स्थापना निक्षेप। किसी वस्तु में, या निराधार, जो किसी के आकार का आरोप होता है, वह स्थापना निक्षेप है। यह दो तरह से होता है एक तो सादृश्य से दूसरा व्यक्तिगत विचारानुकूल। जो आधार गत आकार का आरोप होगा, वह कहीं सादृश्य से होगा और कहीं व्यक्तिगत विचारानुकूल होगा! एवं जो निराधार स्थापना होगी, वल केवल वैयक्तिक विचारानुकूल ही होगी। आप देखेंगे कि किसी चित्र में, चाहे वह हाथी का हो या घोड़े का, देवता या मनुष्य का, स्त्री या पुरुष का, किसी का क्यों न हो, कुछ सादृश्य को लेकर असली वस्तु के आकार की स्थापना की जाती है। "यह घोड़ा है" ऐसा व्यवहार होता है; क्यों ? इस लिये कि उस चित्र में घोड़े के समान कान, नाक, मुंह वगैरह सभी अङ्ग लिखे गये हैं। इसी तरह मूर्तियों के उपासक अपने अपने उपास्य देव की मूर्तियों में शास्त्रवर्णित गुण और महत्ता के स्मारक लक्षणों के बदौलत ही ये राम है 'ये भगवान् जिन है। इस तरह की भावना रखते हैं एवं उनकी हार्दिक उपासना
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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