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________________ पूजा - विभाग ४५६ नृपको, श्रावक धर्म धरावत हैं रे ॥ चा० ॥ प्रतापगढ़को पमार राजा, पुरमें गुरु पधरावत हैं रे || चा० ४ || दया मूल आज्ञा जिनवरकी, बारह व्रत उचरावत हैं रे | चा० । चौहान भाटी पमार इन्दा पुन राठौड कहावत हैं रे || चा० ॥ सीसोदा सोलंकी नरवर महाजन पदवी पावत हैं रे ॥ चा० ५ | ऐसे सात राज समकित घर, खरतर संघ बनावत हैं रे ॥ चा० ६ ॥ कुष्ठ जलंदर क्षयी भगंधर, कइयक लोक जीवावत हैं रे || चा० ॥ ब्राह्मण क्षत्री और माहेश्वर, ओस वंश पसरावत हैं रे || चा० ७ ॥ तीस हजार एक लख श्रावक, महिमा अधिक रचावत हैं रे ॥ चा० ॥ कहत राम ऋद्धिसार गुरुकी, फल पूजा फल पावत हैं रे ॥ चा० ८ ॥ ॥ श्लोक ॥ पनसमोच सदा फलकर्कटैः, सुसुखदैः किल श्रीफलचिर्भटैः । सकल मङ्गल वाञ्छित दायकौ, कुशलसूरिगुरोश्वरणौ यजे ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं परमपुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरण कमलेभ्यो फलं निर्वपामि वाहा । वस्त्र अतर पूजा ॥ दोहा ॥ वस्त्र अतर गुरु पूजना, चोबाचंदन चंपेल | दुश्मन सब सज्जन हुवे, करे सुरंगा खेल ॥१॥ ( मनडो किम ही न भाजे हो कुंथुजिन ) लखमी लीला पाबे रे सुंदर, लखमी लीला पावे । जे गुरु बस्त्र चढावे रेसुं०, सुजस अतर महकावे रे सुं० ॥ दुरजन शीश नमावे रे सुं० ॥ दरिया बीच जहाज श्रावक की, डूबण खतरे आवे । साचे मन समरे सद्गुरुको, दुखकी टेर सुनावे रे ॥ सुं० २ ॥ वाचंता व्याख्यान सुरीश्वर, पंखी रूपे थावे । जाय समुद्रमें जहाज तिराई, फिर पीछा जब आवे रे ॥ सुं० ३ ॥ पूछे संघ अचरजमें भरियो, गुरु सब बात सुनावे | ऐसे दादा दत्त
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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