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________________ ४५८ जैन-रखसार (नेरी पूजा बनी है रसमें ) गुरु किया असुर को वशमें ॥ हो गुरु० ॥ बडनगरीमें आप पधारे, सांमेला धसमसमें । ब्राह्मण लोक बड़े अभिमानी, मिलकर आया सुसमें ॥ म हो० २ ॥ महिमा देख सक्या नहिं गुरुकी, भरे मिथ्यात्वी गुसमें । मृतक गऊ जिन मंदिर आगे, रख दी सनमुख चसमें ॥ हो० ३ ॥ श्रावक देख भये आकुलता, कहे गुरूसे कसमें । चिन्ता दुर करी है संघकी, गउ उठ चाली धसमें | हो० ४ ॥ मरी गऊको जीती कीनी, लोक रह्या सब। हसमें । जाके गाय पड़ी रुद्रालय, संघ भया सब सुखमें ॥ हो० ५ ॥ ब्राह्मण पांव पडे सब गुरुके देख तमासा इसमें । हुकम उठावेंगे शिर ऊपर, तुम संततिकी दिशमें ॥ हो० ६ ॥ नमस्कार है चमत्कारको, कीनी पूजा रसमें । कहे रामऋद्धिसार गुरूकी, आनंद मंगल जशमें ॥ हो० ७॥ ॥श्लोक ॥ . बहुविधैश्वरुभिर्वटकैर्यकैः, प्रचुरसप्पिषि पक्व सुसज्जकैः । सकलमङ्गल वाञ्छितदायको कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥८॥ ॐ ह्रीं परमपुरुषाय परमगुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामि स्वाहा। फल पूजा ॥ दोहा॥ फल पूजा से फल मिले, प्रगटे नवे निधान । चिहुं दिशि कीरति विस्तरे, पूजन करो सुजान ॥१॥ (रथ चढ यदुनंदन आवत हैं) चालो संघ सब पूजनको, गुरु समरयां सनमुख आवत हैं रे ॥चा०॥ आनंदपुर पट्टनको राजा, गुरु शोभा सुन पावत हैं रे ॥ चा० ॥ भेज्या निज परधान बुलाने, नृप अरदास सुनावत हैं रे ॥ चा० २ ॥ लाभ जान गुरु नगर पधारे, भूपति आय वधावत हैं रे, ॥ चा० ॥ राजकुमरको कुष्ठ मिटायो, अचरज तुरत दिखावत हैं रे ॥ चा० ३ ॥ दश हजार कुटुम्ब संग
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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