SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 940 ४३४ -4204adakLL -ALLLLLL.... -Juk:- ArtistsARAMATKARIXELIARRIENDRIYAKLEENAEElimina skhYAPARASHARARRENTARIEYItaliatishtAttitataatankathatantantantimited जेन-रनसार (दिलदार यार गवरूं राखू चूंघट का पटमें ) । जिनराज रूप तेरा निज वस्तु धर्म हेरा, सज्ञान का उजेरा ॥ ध्याऊरे अपनो घट में घन कर्म भोग छेदी, भव तापनो विभेदी । ध्याऊं २ ॥ संठाण षट् नो त्यागी, आकार घन मांहि पागी अरूप चिद्रूपरागी, ॥ ध्याऊं ३ ॥ अलोकालोक भासी निज भावनो विकासी, जिनचंद अखय विलासी ॥ ध्या० ४ ॥ ॥श्लोक ॥ वर्णैः गन्धैश्चिर विरहितं मोह कर्ता च हीनं, भोगैयोगैः सरस रहित । पूर्णमानन्द स्वादी । भेदै दै रुचिक रहितं वाण संधै विहीनं, आत्मानन्दं जिनवर गृहं दीपक द्योतयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्कसहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा। अक्षत पूजा ॥दोहा ।। निरवेदी निर्वेदता, क्षमी दमी जिनराय । अक्षत सिद्ध पूजतां, अचल अखय पदठाय ॥१॥ ॥ सोरठा ॥ मैं तेरी प्रीति पिछानी हो । सिद्ध पद सूं मन लानी हो भवि सिद्ध पद सूं ॥ अविचल नगरीनो अधिराजा, शिव रमणीय लोभाना हो ॥ भवि सिद्ध०२ ॥ अनन्त चतुष्टय उत्कट मंत्री, स्वामी भक्ति रहाना हो ॥ भवि सिद्ध० ३ ॥ मणि मंडित लोकाग्र सिंहासन, छत्र अलोक शुभाना हो । भवि सिद्ध० ४॥ दर्शन ज्ञान परावर्त चामर, अजर अमर दरसाना हो ॥ भवि सिद्ध० ५ ॥ सोइ कुंडल किरीट विराजे, शोभा रूप निधाना हो । भवि सिद्ध० ६ ॥ ध्याता ध्येय रमणता रूपें, हृदय हार पहराना हो ॥ भवि सिद्ध० ७ ॥ विविध स्तव उद्घोपन करतां, भंभानाद घुराना . हो ॥ भवि सिद्ध० ८ ॥ गुण परिकर करि अति छवि छाजे, जिनचन्द्रगज महाना हो । भवि सिद्ध० ९ ॥ Mahaka-4242-4. ----L44LL '.-.:.-"-4 .4.12 :3R- Druari.Jax
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy