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________________ 1263 पूजा - विभाग आत्मानन्दं जिनवर गणान् पुप्पमारोपयामि ||१|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुकसहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशतितीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा । ४३३ धूप पूजा ॥ दोहा ॥ स्पर्श निरमोहिता, रस संठाण विहीन । पूजो भविजनधूप सूं, जूं थावो गुणलीन ॥१॥ ( राग मल्हार ) शिव पद थारो नीको भव भायाजी, जिनराया म्हारे मन भायाजी ॥ शुद्धतम निज रूप विलासी, नो योगी अयोग कहाया जी ॥ जिन० २ ॥ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय गुण गाजे राजे शिवपद राया जी ॥ जिन० ३ || तारण तरणविरुद धराई, निज गुण मांहि रहाया जी ॥ जिन० ४ ॥ कारज कारण किरिया त्यागी, अकर्तृत्व रूप रमाया जी। जिन सेवक मन वंछित पूरो, अचरज भाव सुहाया जी || जिन० ५ || श्री जिनचंद अय निधि दाई संघ उद्योत कराया जी ॥ जिन० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ त्यक्ताहारं मनुविरहितं नित्य चिद्रपभासं अव्यावाधं परिणतम गाधाक्षयं शक्ति युक्तं वेदानन्तं प्रति समयिकं भंगकं सायनन्तं क्षीणाष्टं श्री जिनवर गणं धूप दाहं करोमि ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्कमहिना अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याण येभ्यः धृपं यजामहे॒ स्वाहा॒ | दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ एक सिद्ध अवगाहना, तिहां अनन्त समाय | नविजन शुद्ध स्वनावधी दीप करो मनलाय ||१|| shaile JALAAV
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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