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________________ पूजा-विभाग ॥ श्लोक ॥ गेहे लेश्या रहित मधनं मार्दवं शक्तिवन्तं, ध्यानैर्मुक्तो सकल मनुजं ध्येय रूपं अनंगी। सङ्गैर्भङ्गै रहितमतनुं सर्वमेय प्रमाणं, आत्मानन्दं जिनवर गणं अक्षतैरर्च्चयेहम् ॥ १०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहें स्वाहा । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ निज निज वस्तु परणतें, जानें सकल स्वभाव | विविध गुण परिणत करी, चाढो भोज्यनो भाव ॥१॥ ४३५ (भजलो हो भगवान कूं ) करले हो श्री सिद्ध ध्यान कूं, जो होय शिवपद डेरा त्याग जगका भावकूं, निज ज्ञानका उजेरा। जिम भानुके प्रकाशतें, अंधकारका नसेरा ॥ कर० २ ॥ ध्यान कर वर सिद्ध का जं कटे भवफंद तेरा । गारुडीय मंत्र सुयोग थी, नागपास का विणेरा || कर० ३ ॥ निरागीराग तेरा जूं मिटे अज्ञान अन्धेरा । दिनकर उदय जिनचंदतें षद्रव्य का उजेरा ॥ कर० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ प्राग्भारैषा जग शिखरवत् सिद्ध सर्वार्थ शृङ्गा, तात्वाद्विषट् प्रमित सकलं योजनं ऊर्द्ध भोगे। चन्द्राकारार्जुन कनकवद्वजवतेज युक्तं सिद्धस्थानं सरस मधुरं ढ़ौकये नव्य भोग्यं ॥१५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा ॥ फल सूं सिद्ध पद पूजतां, होवे सिद्ध विलास I आतमगुण विकशित करी, भविजन घर उल्लास ॥१॥
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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