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________________ Anawrmniwwwin rrarianawarranwrw remawww श्री शक Swatantantrtant tutanka-tra-Tatastmtrintertaimer-tirlinesale-trehakakatnnelketerplicataliriretekaktikaraeairkakokaranalileoletestakaurtorateiloeakiatar.kanlidakiokinaamkakshat-teantaraaseehirelsnelialistaskotalbataonline विधि-विभाग १३५ का काउसग्ग पार थुई कहे । “शासन देवता आराधनार्थ करेमि काउसग्गं" अणस्थ कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार । “या पाति शासनं जैन, सद्यः प्रत्यूह नाशिनी । साभिप्रेत समृद्ध्यर्थं, भूयाच्छासन देवता ॥३॥ थुई कहे । अन्त में “समस्त वेयावृत्ति देव आराधनार्थ करेमि काउसंग्गं.” अणत्थ० कह एक णमोकार का काउसग्ग पार-थुई पढ़े। श्री शक्र प्रमुखा यक्षाः, जिन शासन संस्थिताः। देवान् देव्यस्तदन्येऽपि, संघं रक्षत्वपायतः ॥४॥ ये थुई कहे । तत्पश्चात् नीचे बैठ णमुत्थुणं. पूर्वक जयवीयराय. तक सम्पूर्ण चैत्यवन्दन करे । पीछे खमासमण दे "भगवन् ! (अमुक तप) ग्रहणाथ करेमि काउसग्गं" कह एक लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स० कहे । पीछे खमासमण दे तीन णमोकार गिने । पुनः एक खमासमण दे "इच्छकार भगवन् ! अमुक तप ग्रहण दंडक उच्चरावो जी" कहे । गुरु के 'उच्चरावेमो' कहने पर जो तप ग्रहण किया हो उसी तप का नाम ले गुरु मुखसे तीन बार निम्नलिखित पाठ सुने "अहण्हं भंते ! तुम्हाणं समीवे । ( अमुक तवं ) उव संपज्जत्ताणं विहरामि ( तंजहा )। दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं ( अमुक तवं ) खित्तओणं इत्थ वा अणत्थ वा कालओणं जाव परिमाणं, भावओणंजाव गहेणं ण गहिज्जामिछलेणं ण छलिज्जामि, जाव सण्णिवाएणं ण भविज्जामि, जाव अण्णेण वा केणइ रोगायंकणवा परिणाम वसेण । एसो मे परिणामो ण परिवज्जइ । ताव मे एसतवो रायाभियोगेणं, गणाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, देवाभियोगेणं,गुरु णिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं, अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरे ॥ पीछे गुरु के “हत्येणं सुत्थेणं अत्येणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरंपालणीयं गुरु गुणेहिं बुढाहिं णित्थारगापारगा होत्था” कहने पर खमासमण देकर गुरुमुखसे पञ्चाक्खाण करे यदिगुरु न हों तो स्वयं मुखसे उच्चरे। BRahalibaboductioilaoladwitololystalesmati ilnalist-dailsilaletaslilasludeitudenbileolindodesleblosbhedadisiakslnblicleslalishaladislikestinkalnalaikasaalaaliakistratiseatekosloardaslaielplustracelishalGadislndiansantoshsielationsvalienaththatarManun Modea
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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