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________________ అండదండగtakalatat a tatathal a antu १२५ wwwmarwinnnnnnnnrnmmmmmmmmmrawraatururammam अथवा जैन-रनसार अथवा शुभ द्रव्य अक्षत पूजना, स्वस्तिक सार बनाइये । गति चार चूरण भावना, भवि भाव से मन भाइये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने० अक्षतं यजामहे स्वाहा कहे "हे भगवन् । मुझे अक्षत पूजा से शुक्ल ध्यान की प्राप्ति हो ।” ऐसा चिन्तवन करते हुए प्रभु के आगे चढ़ावे । तदनन्तर नैवेद्य थाल में रख ये मन्त्र पढ़े-- नैवेद्य पूजा सकल पुद्गल संग विवर्जनं, सहज चेतन भाव विलासकम् । सरस भोजन नव्य निवेदनात, परम निवृत्ति भावमहं स्पृहे ॥७॥ अथवा सरस मोदक आदि से भरी, थाली जिनपुर धारिये। निवेद गुणधारी मने, निज भावना ज निवारिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । कहते हुए "हे भगवन् मुझे मुक्ति पद हासिल हो।” ऐसी भावना भाते हुए नैवेद्य चढ़ावे।। तत्पश्चात् सुपारी, बादाम फलादि अथवा वर्तमान ऋतु के शुद्ध फल हाथ में ले ये मन्त्र पढ़े फल पूजा* कटुक कर्म विषाक विनाशनं, सरस पक्व फल बजढ़ौकनम् । विहित मोक्ष फलस्य प्रभो पुरः, कुरुत सिद्ध फलाय महाजनाः ॥८॥ अथवा फल पूर्ण लेने के लिये, फल पूजना जिन कीजिये। पण इन्द्र दाती कर्म वामी, शाश्वता पद लीजिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने० फलं यजामहे स्वाहा । ऐसा कहते हुए। * फल सड़ा, गला, चलित रसवाला नहीं चढ़ाना चाहिये। सुस्वादु सुन्दर फल ही चढ़ाना चाहिये। 2
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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