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________________ भूमिका ३७ श्रीवर एवं शुक की राजतरंगिणियाँ संस्मरण काव्य कही जायगी। वे संस्मरण की परिभाषा के निकट है। उन्होंने जो कुछ देखा, उसी को लिपिबद्ध किया है । तथापि उन्होंने राजतरंगिणी परम्परा का निर्वाह करते हुए, अपने ग्रन्थों को इतिहास का रूप यथा शक्ति देकर उसे इतिहास बनाया है । *, परन्तु वर्तमान इतिहास लिखना, भूतकालीन इतिहास के विवादास्पद होने पर बचत हो सकती है खतरे से खाली उस समय नहीं था । अधिक निकट कही जायगी। संस्कृत कवि कम लिखते है संस्मरण लिखने की प्रथा संस्कृत एक प्रकार से लिखते ही नही । । । आत्म चरित एवं संस्मरण में अन्तर है। आत्मचरित में रचना श्रीवर की रचना संस्मरण के साहित्य में नही मिलती। अपने विषय में संस्मरण आत्म चरित के अन्तर्गत आता है कार अपना जीवन वृत्त लिखता है संस्मरण में रचनाकार अपने समय की घटनाओं का वर्णन करता है। संस्मरण, लेखक जो स्वयं देखता है, अनुभव करता है, उसी का वर्णन करता है । उसके वर्णन मे उसकी अनुभूति एवं संवेदनायें रहती है । संस्मरण जीवनी नहीं है । अन्य व्यक्तियों के विषय में जो लिखा जाता है, वह जीवनी के निकट है । । कथा का प्रमुख पात्र स्वयं होता है । आँखों देला इतिहास लिखता है। श्रीवर ने स्वयं लिखा है कि वह राजावली ग्रन्थ लिख रहा था । उसकी राजतरंगिणी इतिहास एवं संस्मरण का मिश्रण है। आज वह भूतकालीन बात होने के कारण इतिहास है । और समकालीन इतिवृत्त होने के कारण संस्मरण मात्र है । उसमें दोनों की झलक मिलती है । संस्मरण के निकट होते भी, उसे इतिहास माना गया है । इस इतिहास का क्रम उसके नाम से प्रकट होता है। इतिहास के लिये रूढ़ हो गया है । राजतरंगिणी नाम ही काश्मीर इतिहास प्रयोजन : " श्रीवर रचना का कारण उपस्थित करता है। प्रथम कारण जोनराज के छोड़े काम को पूरा करना था । 'इसी जोनराज का शिष्य मै श्रीवर पण्डित, राजावली ग्रन्थ के शेष को पूरा करने के लिये उद्यत हूँ' ( १ : १:७ ) | वह अपने गुरु जोनराज के सन्दर्भ मे पुनः लिखता है - 'किसी कारण से मेरे गुरु ने नही कहा (लिखा था, उस अवशिष्ट यागी को यथामति का ' (१:१९:१६) " द्वितीय कारण, वह अपने समय के सुल्तानों का वृतान्त लिखकर उनके ऋण से उऋण होना चाहता था - 'सज्जन लोग राजवृत्तान्त के अनुरोध से, न कि काव्य गुणों की इच्छा से मेरी वाणी सुनें। अपनी बुद्धि 1 से योजित करें (१ : १:९) अथवा सुल्तानों के वृत्तान्त स्मरण हेतु यह श्रम किया जा रहा है। ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें। ( १ : १:१० ) तत् तत् गुणों के आदान तथा स्वसम्पत्ति के प्रदान पूर्वक, ग्राम, हेम आदि अनुग्रहो से सुल्तान द्वारा पुत्रवत् ( मैं ) सम्बंधित किया गया ( १ : १ : ११) अतएव उसके असीम प्रसाद की निष्कृति ( निस्तार) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट मन होकर मैं उसका वृत्तान्त वर्णन करता हूँ । ' (१:१:१२ ) वह पुन: सुल्तान द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठा, दान, सम्मान से उऋण होने की बात लिखता है - 'आत्मज सहित इस नृप के राज वर्णन से ( राज्य प्राप्ति ) प्रतिष्ठा दान, सम्मान, विधान एवं गुणों से निष्कृति प्राप्त की जा सकती है।' (१:१:१७) कण की राजतरक्षिणी का उद्देश्य उपदेशात्मक के साथ ही साथ कलि से सन् १९४८ - ११४९ का इतिहास उपस्थित करना था। जोनराज का उद्देश्य, कल्हण के क्रम को जारी रखते हुए, अपने समयतक का इतिहास सुल्तान जैनुल प्रस्तुत करना था । आबदीन के आदेश पर
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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