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________________ २१७ १:७ : १३७-१४३ ] श्रीवरकृता मद्वयाख्याश्रवणाभ्यस्तान् स्वावस्थासूचकान् बहून् । इत्यादिकान् स्वयं श्लोकानपठत् स महीपतिः ॥ १३९ ॥ १३९. वह राजा मेरी व्याख्या सुनने से, स्मृत तथा अपने अवस्था के सूचक, इस प्रकार के बहुत से श्लोकों को स्वयं पढ़ा। मोक्षोपाये श्रुते मत्तस्तत्तत्पद्यार्थभावनात् । अर्थकदाब्रवीद् राजा विबुधानन्तिकस्थितान् ॥ १४० ॥ १४०. मुझसे मोक्षोपाय' सुनने पर, तत् तत् पदार्थों की भावना करके, राजा ने समीपस्थ विद्वानों से कहा किमर्थं स्वसुतस्नेहं करोष्येको न तेहितः । इत्येव वक्ति मे नूनं कर्णोपान्तागतो जनः ॥ १४१ ॥ १४१. 'किस लिये अपने पुत्रों पर प्रेम कर रहे हो ? उनमें एक भी तुम्हारा हितैषी नहीं है-?' इस प्रकार कर्ण ( कान ) के समीप आगतजन मानो मुझसे कह रहे हैं। अस्थि दन्तादिभिर्भक्त्वा मांसं मांसेन भुज्यते । रक्तबीजमये भोगे भ्रमोऽयं न व्यपैति मे ॥ १४२ ॥ १४२. 'दाँतों आदि से अस्थि (हड्डी) तोड़कर, मांस से मांस खाया जाता है। रक्त, बीजमय भोग में मेरा यह भ्रम दूर नहीं हो रहा है। अहो मयि मृदौ सर्वसुखदे छिद्रकारिणः । नाशायामी सुता जाता राङ्को क्रिमयो यथा ॥ १४३ ॥ १४३. 'आश्चर्य है ! कोमल एवं सर्वसुखद मुझमें छिद्रकारी, ये पुत्र नाश के लिये, उसी प्रकार उत्पन्न हो गये हैं, जिस प्रकार रांकव' में कृमि उत्पन्न हो जाता है । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : १४०. (१) मोक्षोपाय : द्रष्टव्य टिप्पणी भक्त्वा = पाठ-बम्बई। श्लोक १ : ७ : १३२ । श्री दत्त ने रांक का अर्थ ऊनी वस्त्र लगाया है। १४३. (१) रांकव : रांकव का अर्थ कम्बल पाद-टिप्पणी: भी होता है । ऊनी वस्त्रों, शाल, कम्बल, गलीचा १४१. (१) जन : जन के स्थान पर जरा आदि को कृमि काट कर नष्ट कर देती है। आधुशब्द रखना और अच्छा होगा। किन्तु इसका कोई निक अनुसन्धानों के कारण मोथप्रफ कम्बलादि बनने आधार नहीं मिल रहा है। इस स्थिति में अर्थ लगे है, जिनमे कीटाणु नहीं लगते।। होगा-आगत जरा ( वृद्धावस्था ) मानो मुझसे कह रांकब कम्बल रंकु जाति के हरिण के ऊन से रही है। श्री दत्त ने जरा या जन के स्थान पर बनता है। विक्रमांकदेवचरित मे विल्हण ने इसका 'कोई' 'संभवन' भावानुवाद किया है। उल्लेख किया है ( १८ : ३१) जै. रा. २८
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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