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________________ २१६ जैनराजतरंगिणी [१:७:१३४-१३८ स्वकण्ठस्वरभङ्गयाहं तवृत्तपरिवर्तनैः।। व्याख्यामकरवं येन निःशोकोऽभूत् क्षणं नृपः ।। १३४ ॥ १३४. मैंने अपने कण्ठस्वर की भंगिमा से, उसका वृत्त परिवर्तन करके, व्याख्या किया, जिससे राजा क्षणभर के लिये शोकरहित हो गया। भ्रमस्य जाग्रतस्तस्य जातस्याकाशवर्णवत । अपुनः स्मरणं साधोमेन्ये विस्मरणं वरम् ॥ १३५ ॥ १३५. 'आकाश वर्ण सदृश, जाग्रत सज्जन व्यक्ति का, आकाश वर्ण सदृश, उस भ्रम (माया) का, पुनः स्मरण न करना तथा विस्मरण कर जाना श्रेष्ठ है। दीर्घस्वप्नोपमं विद्धि दीर्घ वा प्रियदर्शनम् । दोघं वापि मनोराज्यं संसारं रघुनन्दन ।। १३६ ।। १३६. 'हे ! रघुनन्दन' !! संसार को दीर्घकालिक स्वप्न सदृश अथवा दीर्घकाल का प्रियदर्शन अथवा दीर्घकालिक मनोराज्य जानिये । यदि जन्म जरा मरणं न भवेद् यदि वेष्टवियोगभयं न भवेत् । यदि सर्वमनित्यमिदं न भवे दिह जन्मनि कस्य रतिर्न भवेत् ॥ १३७ ॥ १३७. 'यदि जन्म, जरा, मरण न हो, अथवा, यदि इष्ट वियोग न हो, यदि वह सब अनित्य न हो, तो इस जन्म में किसको रति नही होती ? यतो यतो निवर्तेत ततस्ततो विमुच्यते । निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति सुखमण्वपि ॥ १३८ ॥ १३८. 'जैसे-जैसे नृवृत्त ( निवर्तित ) होता है, वैसे-वैसे मुक्त होता है। चारो ओर से निवृत्त हो जाने से, अणुमात्र सुख का अनुभव नहीं करता।' प्राप्ति के उपायों का वर्णन लिखा रहता है। समाधान किया गया है। श्रीवर ने वही शैली यहाँ द्रष्टव्य : १ : ७ : १३९; २ : २१५ । अपनायी है। इससे प्रकट होता है कि श्रीवर जैनुल पाद-टिप्पणी: आबदीन को योगवाशिष्ठ रामायण सुना रहा था। १३४. 'तद' पाठ-बम्बई । दूसरा इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि जैनुल पाद-टिप्पणी : आबदीन को अवतार श्रीवर मानता था, अतएव १३६. ( १ ) रघुनन्दन : योगवाशिष्ठ रामा- उसने उसके लिए रघुनन्दन सम्बोधन का प्रयोग यण में रघुनन्दन सम्बोधन से राम की शंका का किया है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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