SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० जैन राजतरंगिणी क्रमराज्ये तदा कुर्वन् कल्लोलैराकुलं जनम् । महानप्रसरो वेगादगाद् अन्यः सरोवर: प्रीत्या किमागतो २१. उस समय क्रम राज्य मे तरंगों से लोगों को आकुल करता हुआ, जल का महान प्रसार' दुर्गपुर के अन्दर तेजी से प्रवेश किया । कोsपि पद्मनागसरोन्तिकम् । दूराद् यं दृष्ट्वा विशशङ्किरे ।। २२ । २२. दूसरा भी कोई सरोवर प्रेम से पद्मनाग सरोवर के निकट आ गया है क्या ? दूर से जिसे देखकर लोगों ने) शंका की । स्वयमुत्पाटयत्यस्मान् वृक्षवत् सहसागतः । इतीव तत्र वेश्मानि चिक्षिपुः स्वं जलान्तरे ॥ २३ ॥ दूरे समुद्रो मद्भर्ता इत्थं वितस्ता २३. सहसा आगत, वह वृक्ष के समान हमलोगों को उखाड़ रहा है, इसीलिए मानो वहाँ घर अपने को जल मे डाल दिये । [ १ : ३ : २१-२४ दुर्गपुरान्तरम् ॥ २१ ॥ कोऽयं मे समुपागतः । प्रतीपमगमत् तदा ॥ २४ ॥ द्रष्टव्य : रा० : ४ : ६१९ । नवादिरूल अखबार पाण्डु० ( फो० ४५ ए० ) लिपि में भी जैनकदल का उल्लेख मिलता है । पाद-टिप्पणी : त्रस्तेव २४. 'मेरा भर्ता' समुद्र दूर है। यह कौन मेरे पास आ गया ?" इस प्रकार त्रस्त सदृश वितस्ता उलटे बहने लगी । २१. म्बई का २०वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३४वीं पंक्ति है । (१) महान प्रसार पाठभेद महापद्मसर भी मिलता है। महापद्मसर मानकर अनुवाद करने से महापद्मसर का जल दुर्ग में प्रवेश किया, अर्थ होगा । ( २ ) दुर्गपुर : स्थान उलर लेक के तट पर था । इसका केवल यहीं उल्लेख मिलता है । पाद-टिप्पणी : २२. बम्बई का २१वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३५वीं पंक्ति है । पाद-टिपप्णी : २३. बम्बई संस्करण का २२वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३६वीं पंक्ति है । पाठ-बम्बई । २४. बम्बई का २३वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३७वी पंक्ति है । : ( १ ) भर्ता भर्ता का अर्थ स्त्री का पति होता है । नदी स्त्रीलिंग है । उसकी उपमा नारी तथा समुद्र पुलिंग की उपमा पुरुष से दी गयी है । नर एवं नारी का मिलन विवाह का परिणाम है । विवाह पश्चात् ही पुरुष भर्ता की संज्ञा प्राप्त करता है । इसी प्रकार समुद्र से मिलने पर नदी का भर्ता समुद्र हो जाता है । —स्त्रीणां भर्ता धर्म दाराश्च पुंसाम् = (मातंगलीला : ६ : १८ ) । स्त्री का भरणपोषण करने के कारण पति को भर्ता कहा गया है । ( २ ) उलटे : नदी में आगे जब बढ़ी नदी मिलती है तो गतिशील धारा संगम के समीप रुक कर बहने लगती है । यह परिक्रिया काशी में वरुणा तथा गंगा संगम के कारण प्रायः उपस्थित होती
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy