SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७९ १३ : १८-२०] श्रीवरकृता तारदाग्राम पंक्त्याश्च दर्शनाय विशांपतेः। यात्रागतस्य रामस्य सेतुबन्ध इवाभवत् ॥ १८॥ १८. तरदा' ग्राम पंक्ति को देखने के लिए, यात्रा में आये राजा के लिए, वह राम के सेतुबन्ध सदृश हो गया। वितस्तायां कृता जैनकदलिः सा गृहोज्ज्वला । जलावेशात् तटे मग्ना भग्नाद्या नगरान्तरे ॥ १९॥ १९. वितस्ता पर निर्मित गृहों से शोभित, वह जैनकदल' तटपर, जल प्रवेश के कारण नगर मध्य मग्न हो गयी। पादद्वयावशेषापि स्थापिताग्रे भविष्यताम् । पादद्वयं पूरयितुं समस्येव महीभुजाम् ।। २० ॥ चतुर्भिः कुलकम् ॥ २०. अवशिष्ट दो पाद से ही स्थित, वह भविष्य के राजाओं के लिए, दो पाद पूर्ण करने वाली समस्या के समान हो गयी थी। (१) स्तम्भ : मान्यता है कि विजयेश्वर का (२) सेतुबन्ध : सेतुबंध रामेश्वर । लंका चारों स्तम्भ जैनुल आबदीन ने निर्माण कराया था। एवं भारत के मध्य । (२) चतुष्पाद : शब्द का अर्थ है चार पाद पाद-टिप्पणी : अर्थात् धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राज्य शासन १९. (१) जैनकदल : जैनुल आबदीन ने ( नारद : १:१०)। याज्ञवल्क्य एवं बृहस्पति के श्रीनगर में चौथा पुल जैनकदल वितस्ता पर निर्माण अनुसार चतुष्पाद अभियोग, उत्तर, क्रिया एवं निर्णय कराया था। श्रीनगर में उन दिनों सात पुल वितस्ता है ( याज्ञ०:१:८-२९ )। कात्यायन के अनुसार पर थे। पुल नावों को पाट कर बनाये जाते थे। चतुष्पाद का अर्थ अभियोग, उत्तर, प्रत्याकलित एवं जैनकदल का महत्व इसलिए था कि यह शहतीरों क्रिया है। पर बनाया गया था। इसे चौथा पुल भी उन दिनों कहते थे । जैनुल आबदीन के पूर्व राजा जयापीड ने पाद-टिप्पणी : यही पर सेतु बनवाया था। जैनकदल का पुनः उल्लेख १: ३ : ८३ में किया गया है। द्र० वाइन : पाठ-बम्बई। ३३७, मूरक्राफ्ट २ : १२१, १२३, लारेंस पृ० : ३७। १८. यह श्लोक बम्बई संस्करण का १८वाँ तथा पाद-टिप्पणी : कलकत्ता की २३१वी पंक्ति है। २०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २३३(१) तरद : को श्रीदत्त ने दरद लिखा है। पंक्ति है तथा बम्बई संस्करण का १९वां श्लोक है। दरद देश है। वर्तमान दर्दिस्तान है ( पृ० १२१)। (१) समस्या : पूर्ण करने के लिए दिया यहाँ पर तरदा नामवाची अर्थ असंगत प्रतीत जाने वाला छंद का अन्तिम चरण । कविता का वह होता है । 'तरदाय' मानकर तारने के लिए अर्थ कर भाग जो पूर्ति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। दिया जाय, तो कुछ अधिक संगत होगा। कल्हण ने भी समस्या उपमा का प्रयोग किया है।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy