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________________ जैन राजतरंगिणी retreatग्राही भूभुजो निश्चितो भवान् । तावतैव स किं क्रुद्धो हन्त्यस्मान् करुणापरः ॥ ८९ ॥ ८९. 'आप राजा का बचन नहीं ग्रहण करें, तो इतने ही से वह दयालु क्रुद्ध होकर, हम - लोगों को मार देगा । ३४ युद्धायादमखानश्च निर्यातः स्वबलान्वितः । त्वत्तः स नश्यति क्षिप्रं श्येनाग्रादिव पोतकः ॥ ९० ॥ ९०. 'अपने बल से अन्वित होकर, युद्ध के लिये निकला, वह आदम खाँ, उसी प्रकार शीघ्र नष्ट हो जायगा, जैसे बाज से पक्षि- शावक । पर्वतीय क्षेत्रों में शरण लिये थे । काश्मीर के प्रतीहार भारतीय प्रतिहारों के वंशज है। काश्मीर के मुसलमान हो जानेपर वे भी मुसलिम धर्म ग्रहण कर लिये । अपना कुलगत नाम नही त्याग सके । परशियन इतिहासकारों ने प्रतिहारों को 'पडर' लिखा है। [ १ : १ : ८९-९० काश्मीर में प्रतिहारों का भी वर्गीकरण था । प्रतीहार, भोप्रतीहार, ला प्रतीहार आदि का उल्लेख लोकप्रकाश में मिलता है ( पृष्ठ २ ) । विषयानुक्रमणिका क्रम संख्या ६ में 'डामरपति नामानि' में प्रतीहार को रखा गया है। इससे एक अनुमान और लगाया जा सकता है कि प्रतीहार कर्म करने के कारण, उनके वंश के लिये नाम रूढ हो गया था । कर्मों के अनुसार प्रतीहारों का वर्गीकरण हो गया था । डामरों के समान प्रतीहार वर्ग ग्रामीण तथा कृषोपजीवी कुलीन लोग थे । कल्हण के समय प्रतिहार का कार्य द्वारपाल, राजभवन रक्षक आदि था । प्रतिहार का स्थान महत्वपूर्ण था । राजा ललितादित्य की रानी कमलादेवी महाप्रतिहार पीड थी । राज्यभवन किवा अन्तःपुर की मुख्य प्रबन्धक थी । प्रतिहार कुलागत सेवा स्थान भी होता था, जिसके कारण वंश का नाम प्रतिहार पड़ गया था । प्रतिहार उपाधिरूप में प्रयुक्त होने लगा था ( रा० : ४ : ४८५ ) । कल्हण के वर्णन से यह भी प्रकट होता है कि ललितादित्य ने और कर्मस्थानों की स्थापना की थी । उसके पूर्व पाँच अट्ठारह कर्मस्थान थे । उसने २३ कर्मस्थान बनाये थे । उनमें एक महाप्रतिहार पीड था । उसका कार्य गृह विभाग देखना था । उसका पद महासन्धि विग्रहिक ( विदेश मंत्री ) महाभाण्डार आदि के समान उत्तरदायित्वपूर्ण पद आजकल के गृहमन्त्री के समान था ( रा० : ४ : १४३ ) । एक समय प्रतीहार इतने शक्तिशाली हो गये थे कि राजा को सिंहासन पर बैठा और उतार सकते थे ( रा० : ५ : १२८, ३५५ ) । हर्षचरित में महाप्रतिहार पद का उल्लेख मिलता है । राजा हर्ष का महाप्रतिहार पारिपात्र था । द्रष्टव्य : पाद-टिप्पणी : शुक १ : १ : ८८ । (३) मार्गेश : काश्मीर के आने वाले मार्गों अर्थात् सीमावर्ती दरों के प्रवेश मार्गो की रक्षा का भार, जिस सैनिक अधिकारी पर होता था, उसे मार्गपति कहते थे । यह पदवी उत्तरदायित्वपूर्ण माना जाता था । प्रत्येक दरों पर द्रंग अर्थात् सैनिक चौकियाँ बनी रहती थी । मुगल काल में दंगों की रक्षा का भार मलिकों को दिया गया था । सुपियान के समीप उन्हे जागीर भी दी गयी थी । उन्हे संस्कृत मे दंगेश कहा जाता था । काश्मीर के बाहर भी यह शब्द प्रचलित था । सीमान्त तथा दरों का रक्षक मार्गपति माना जाता नालन्दा अभिलेख ( सन् ५३० ई० ) में इसका उल्लेख मिलता है ( आर्ह० : २० : २७,४१ ) । था । यशोवर्मदेव के
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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