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________________ ११८८ ] निम्न स्तर का माना गया है। वे लोग जागीरदार तथा अभिजात कुल के थे । रियासतों के शासकों के रूप में सुलतान तथा राजा लोग यह, उपाधि देते थे । श्रीवरकृता ने , (२) प्रतीहार श्रीवर ने पुनः प्रतीहार का उल्लेख ( १ १ : १५१, १:७:२०२, ३: ४६३, ४ : १६७, २६२ तथा शुक ने १ १ : १८, ३०, ४६, १९८ तथा २०६ ) में किया है । प्रतीहार का शाब्दिक अर्थ द्वारपाल होता है । कल्हण प्रतिहार शब्द का द्वारपाल तथा रक्षक के रूप में प्रयोग ( रा० : ४ : १४२, २२३, ४८५ ) किया है । कालान्तर मे यह वंश, पदवी तथा एक शासकीय पद हो गया । प्राचीन काल मे राजाओं के समीप प्रतीहार नामक एक विशिष्ठ कर्मचारी रहता था। वह राजा को समाचार सुनाया करता था । पति विज्ञ, अनुभवी तथा कुलीन इस पद पर रहने लगे। मुसलिम काल मे उन्हें नकीन तथा चोवदार कहते थे । प्रतिहार तथा प्रतीहार एक ही शब्द है । उच्चारण भेद से वर्तनी में भेद हो गया है । प्राचीन काल मे हिन्दू राजाओं के समय महाप्रतिहार, राजभवन का रक्षक अधिकारी, नगर के द्वाररक्षकों का मुखिया, राजा के शयनकक्ष का रक्षक था । एक मत है कि महाप्रतिहार राजा का व्यक्तिगत सेवक होता था । 'प्रतिहार प्रस्थ' एक कर होता था, जिसे ग्रामीण एक प्रस्थ के हिसाब से प्रतीहार को देता था। प्रतिहार स्त्रियां रक्षक राजप्रासादो में होती थी । वे अन्तःपुर के द्वार की रक्षक तथा रानी की सेविका होती थी। भारत में प्रतिहार किंवा प्रतीहार परिहार नाम से ख्यात है । राजपूतों के तीस गोत्रों में से एक है । प्राचीन मान्यता के अनुसार शास्त्रों का उद्भट विद्वान् हरिश्चन्द्र एक ब्राह्मण था । उसको दो पत्नियाँ थी। ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न प्रतीहारवंशीय ब्राह्मण तथा क्षत्रीय पत्नी से उत्पन्न पुत्र राजवंश के संस्थापक हुये । क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न चार सन्ताने थी । उनसे राज्यों का चार राजवंश स्थापित हुआ। जै. रा. ५ ३३ प्रतीहार वंश को एक शाला मानव अर्थात मालवा में आठवी शताब्दी तक शासन करती रही । एक मत है कि मालव प्रतिहार वंश ब्राह्मण प्रतिहार वश की शाखा था । कालान्तर में क्षत्रियों से विवा हादि करने के कारण क्षत्रिय हो गये थे । इस वंश का प्रसिद्ध सम्राट नागभट हुआ है। उसने अरव आक्रमको से मालवा की रक्षा किया था। आठवी शताब्दी के उत्तरार्ध में इस वंश के वत्सराज ने राजस्थान के गुर्जरराज पर विजय कर लिया। उसने वगाल के पालवंश पर भी विजय प्राप्त किया था । उसने गंगा-यमुना मध्यवर्ती ब्रह्मावर्त धर्मपाल से जीत लिया था। विजय करता गौड़ मे होता गंगासागर तक पहुँच गया था । वत्सराज का उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय था । राष्ट्रकूटवंशीय राजा तृतीय ने मालवा पर अधि कार कर लिया था । पराजय के पश्चात् नागभट ने उससे कन्नौज जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया। इस समय से उत्तर भारत में कन्नौज प्रतिहारों का केन्द्र हो गया । , नागभट द्वितीय का पौत्र भोज प्रतिहार इस वंश का सबसे प्रतिभाशाली राजा हुआ है। उसके समय प्रतिहार राज्य गुजरात से पंजाब तक विस्तृत वा । उसका राज्य काश्मीर की दक्षिण सीमा के निकट तक था । दशवी शताब्दी के प्रथम दशक मे महेन्द्रपाल के समय उत्तर बंगाल तक विस्तृत था । उसका पुन भहिपाल इस वंश का अन्तिम प्रसिद्ध राजा हुआ है। उसका राजकवि शेखर था। महमूद गजनी ने कन्नौज पर आक्रमण किया । कन्नौज अपनी गरिमा कायम नही रख सका । त्रिलोचनपाल इस वंश का अन्तिम राजा था । मुहम्मद गोरी का कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित होने पर प्रतिहार बिखर गये महाराष्ट्री जिस प्रकार पूना तथा रत्नागिर से अल्मोडा आदि पर्वतीय क्षेत्र मे फैल गये, उसी प्रकार प्रतीहार लोग भी अपनी धर्म एवं प्राणरक्षा के लिये, काश्मीरादि
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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