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________________ जैनराजतरंगिणी दुविधा से हटकर। करती है, करुणा का दर्शन । करती है, अपना दर्शन । दर्शनों के उलझनों से हटकर । त्रिगुणों से हटकर । त्रिजगत से हटकर । त्रिशक्ति से हटकर । उसमें सब कुछ मिलता है। जो मिल सकता है। जो अपना है। जो स्वाती जल है। गंगा जल है । मेघ जल है। उसे छोड़ सागर जल कौन ले ? स्वाभिमान जीवन है । दैन्य मृत्यु है । स्वाभिमान आशा है । दैन्य निराशा है। स्वाभिमान भविष्य है। दैन्य वर्तमान है । स्वाभिमान संघर्ष है। दैन्य पलायन है । स्वाभिमान दिन है। देन्य रात है । स्वाभिमान विश्वास है । दैन्य प्रवंचना है। स्वाभिमान अचल है। दैन्य चंचल है। स्वाभिमान अनुशासन है । दैन्य फिसलन है। स्वाभिमान ऊर्ध्व गति की पराकाष्ठा है। दैन्य अधोगति की चरम सीमा है। स्वाभिमान उत्थान सोपान है । स्वाभिमान प्रेरणा है । दैन्य उत्साह का अभाव है। स्वाभिमान पुरुषत्व है। दैन्य क्लीबता है। अनजाने स्वाभिमान ने मुझे पकड़ लिया। बांध लिया। बन्धन में सुख मिला। वह सुख मिला । जो वैभव त्यागने पर, कमण्डल में मिलता है । सरस्वती या लक्ष्मी: काया, जीर्ण होती चली गयी। जीर्ण काया से, सरस्वती उपासना की ओर, जितनी सत्वर गति से बढ़ता गया, लक्ष्मी उससे भी अधिक सत्वर गति से विमुख होती गई। सरस्वती की धारा मरुस्थल में शीतल-हिमालय से चलकर लोप होती है । लक्ष्मी की धारा हरी-भरी सुहावनी भूमि में लोप होती है। सरस्वती की धारा, लोप होते-होते शताब्दियां बीत जाती हैं। किन्तु लक्ष्मी की धारा मुहर्त मात्र में लुप्त होती है। चंचल लक्ष्मी, साथ त्यागने पर, उलटकर ताकती नहीं, दरिद्रता गले मढ़ती है। किन्तु सरस्वती से कहती जाती है, कहती रहती है, जीवन के उदात्त गुणों को। पंकिल भूमि से उज्ज्वल कमल निकलता है। सरोवर में हंस विहरता है। परमहंस होने पर, शरीर पर एक सूत न होने पर, मानव स्वरस्वती की वाणी सुनता है। उनमें पाता है, अपना रहस्य, जगत का रहस्य, जीवन का रहस्य । और लक्ष्मी ? उनका वाहन उलूक ? वह रात्रिचर है । हिंसक है । अशुभ है । घिनौना है। क्रूर है । वैसा ही है, जैसा पूंजीपति । जैसा राजकोश उपासक । जैसा जगत को, जड़ रुपये से खरीदने वाला, घोर मनुष्य । राज्य का राजकोश राज्य के सप्तांग में एक है। एक शक्ति है। सरस्वती एक राज्योंग नहीं बन सकी। लक्ष्मी रत्नभार से दबी है। स्वर्ण मुकुटों से वेष्ठित है। उसके उपासक रत्नों से, आभूषणों से, मुद्राओं से, दबे हैं । किन्तु रत्न स्वर्णादि जीवनशून्य है। चकाचौंध पैदा करते हैं। उनमें अनुप्राणित करने की शक्ति नहीं होती। विनिमय के साधन हैं। खरीदे और बेचे जाते है। लूटे और उताये जाते हैं । उनमें स्थिरता नहीं है। उनकी स्थिरता भौतिकता पर है। शक्ति क्षीण होते ही। लक्ष्मी लात मार कर, बिछुड़ जाती है। पाद प्रहार से मनुष्य हीन हो जाता है। जड़ता भी जड़ हो जाती है। विराग झंकरित होता है। हृदय झंकरित होता है। उत्साह झंकरित होता है। स्फति झंकरित होती है । ज्ञान-विज्ञान झंकरित होते हैं। तन्त्री वाद्य में, सत्व संगीत में, सात्विक भावनाएँ उठती हैं। तम तिरोहित होता है । सत्व उठता है । सत्व के साथ मानवता उठती है । निःसन्देह, इस दशक में सरस्वती के दर्शन मिलते रहे । श्रम अपना था। निःसंकोच उपयोग कर सकता था। अर्थ की समस्या विषम थी। कोई लिपिक नहीं था। सहायक नहीं था। टाइपिस्ट रखने की स्थिति में नहीं था। अपने हाथों करना था। नोट बनाता था । प्रारूप तैयार करता था। अन्तिम रूप देने में एक ही विषय कई बार कागज काला करते थे। प्रफ देखना सरल काम नहीं था। उसे भी देखता रहा। हस्तलिखित कागजों के गठर तैय्यार हो गये थे। उन्हें
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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