SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका ५ देख कर सिहर उठता हूँ । इतना परिश्रम इस जीवन में अकेले अब न हो सकेगा । गठ्ठरों को बस्तों में सुला दिया। उनसे छुट्टी मिली। राजनीति से अवसर प्राप्त, राजनीतिज्ञों के समान, अवसरवादियों के अवसर समाप्त होने के समान, अतीत की सुखद स्मृतियों में घूमते रहना लम्बी साँस लेते रहना, पुरानी बातों को दुहराते रहना, आत्मलाषा करते रहना, पदप्राप्ति की अभिलाषा बनाये रखना मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ा। मैं सन् १९२१ से ही जेलयात्रा करते, राजनीतिक उधेड़बुन में रहते, आशा-निराशा में झूलते दुःख-सुख, भायअभाव, उतार-चढ़ाव में रमने का आदी हो गया हूँ । दश वर्ष के लम्बे काल में अपने लिये, अपने सुख साधान के लिये मैंने न तो मुख खोला और न किसी ने मुझे स्मरण करने की कोशिश की। जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मेरी दुनिया संकुचित होती गयी । 1 किसी का उपकार करने की स्थिति में नहीं था । किसी पर अहसान करने की स्थिति में नहीं था । राजनीतिक अधिकार रहित था । पचास वर्ष के लम्बे राजनीतिक जीवन के साथी, जेल के साथी, मेरे प्रति एक प्रकार से उदासीन हो गये थे 'मैं भी राजनीतिक पीड़ित या स्वतंत्रता सेनानी' को पेंशन लेकर, उनकी श्रेणी में बैठ नहीं गया, यह बात उन्हें अखरती थी। उनकी पंक्ति, उनके वर्ग के बाहर था । बनारस में दो ही चार जेलयात्री घोष रह गये थे, जिन्होंने पेंशन लेकर जनता की गाढ़ी कमाई पर सुखद जीवन निर्वाह करना पसन्द नहीं किया। सत्ताधारियों की लम्बी कतार में बैठना, हाँ मैं हाँ मिलाना, उनके अनुग्रहों से अनुगृहीत होना, गंवारा नहीं किया। मैंने देश के लिये काम किया था। उसके लिये स्पाग किया था। । उसका पुरस्कार प्राप्त कर, अपने कुटुम्ब के लम्बे सन् १८८८ ई० से होते, गतिशील राजनीतिक जीवन में एक ऐसी कड़ी नहीं जोड़ना चाहता था, जो किसी प्रकार अशोभनीय मानी जाती । प्रयोजन : राजतरंगिणी श्रृंखला में श्रीवर कृत जैनराजतरंगिणी तृतीय राजतरंगिणी है । कलबत्ता तथा बम्बई मुद्रित संस्करणों में तृतीय राजतरंगिणी शीर्षक है। जैनराजतरंगिणी नाम श्रीवर ने ग्रन्थ का स्वयं रखा है ( १:१:१८) | अस्तु ग्रन्थ का शीर्षक जैनराजतरंगिणी है । प्रारम्भ में कल्हण राजतरंगिणी भाष्य एवं अनुवाद की मेरी योजना थी । अन्तिम काश्मीरी हिन्दू शासिका कोटा रानी के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियाँ हैं । भ्रान्ति के शमनार्थ मैने जोनराज का अध्ययन आरम्भ किया । अध्ययन का फल जोनराजतरंगिणी भाष्य एवं अनुवाद है । जोनराज के भाष्य तथा अनुपाद पश्चात् श्रीवर तथा शुक भाष्य एवं अनुवाद की योजना बनायी । यह भाष्य साहित्यिक एवं काव्य दृष्टि की अपेक्षा ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सामाजिक दृष्टि से लिखा गया है । अंग्रेजी में ग्रन्थ लिखता, तो महत्त्व, बिक्री तथा प्रसिद्धि अधिक होती। मेरी मातृभाषा हिन्दी है। विदेशी भाषा में लिखना अच्छा नहीं समझा। सम्भव है, कालान्तर में अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत करने का प्रयास में या मेरे पश्चात् कोई महानुभाव करें, तो वे विश्व के कोने-कोने में ग्रन्थ पहुंचाने का श्रेय प्राप्त करेंगे के वर्ष वर्ष तत्व चिन्तन में व्यतीत करना चाहता है। 1 में स्वयं अनुवाद करने में असमर्थ हूँ जीवन पाठ : कलकत्ता (सन् १८३५ ई० ) तथा बम्बई ( सन् १८९६ ई० ) दो संस्करण नागरी में मुद्रित हैं । राज तरंगिणी को प्रकाश में लाने का श्रेय श्री मूर क्राफ्ट इंगलिश पर्यटक को है । उसी से प्राप्त पाण्डुलिपि के आधार पर कलकत्ता संस्करण हुआ है। श्री पीटरसन द्वारा सम्पादित बम्बई संस्करण श्री दुर्गा प्रसादजी का
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy